पाठ: (37) कृदन्त (4) निष्ठा प्रत्यय


(क्त प्रत्यय भाव में। अकर्मक धातुओं से क्त प्रत्यय भाव में होता है। सकर्मक धातुओं में भी जब कर्म की अविवक्षा होती है, तब सकर्मक धातुओं से भी क्त प्रत्यय भाव में हो सकता है। भाव में क्त प्रत्ययान्त क्रिया नित्य ही नपुंसकलिंग एकवचन में होती है, तथा कर्त्ता में तृतीया विभक्ति होती है।)

बुभुक्षया बालेन रुदितम् = भूख के कारण बच्चे के द्वारा रोया गया।
अध्यापकस्याऽनुपस्थितौ बालैः जल्पितम् = अध्यापक के अनुपस्थित होने से बच्चों के द्वारा गपशप की गई।
आतंकवादिनो मुक्तिं श्रुत्वा जनैर्भृशमाक्रुष्टम् = आतंकवादी की रिहाई सुनकर लोगों के द्वारा खूब आक्रोश किया गया।
वने सिंहं दृष्ट्वा भीतेन भृशं धावितम् = वन में शेर को देखकर डरे हुए व्यक्ति के द्वारा खूब दौड़ा गया।
पदं मिथ्याकरणात् शिक्षकेण क्रुद्धम् = शब्द का गलत उच्चारण करने से शिक्षक ने गुस्सा किया।
गुरुकुले यत् भुक्तं पीतं तप्तं जल्पितमटितं तन्न प्रस्मर्यते = गुरुकुल में जो खाया-पीया, तप किया, बातें की, घूमे वह भूला नहीं जा रहा है।
स्थालीपक्वमेव पितामहो भुङ्क्ते = दादाजी बटलोई का पका ही खाते हैं।
चुल्लीपक्वं सुपाच्यं मधुरञ्च भवति = चूल्हे में पकाया हुआ सुपाच्य और मधुर होता है।
उपकृतं दत्तञ्चैव परलोकं सह गच्छति = उपकार किया हुआ और दान किया हुआ ही परलोक को जाता है।
अभुक्तमदत्तं नित्यं हि क्षीयते = न स्वयं भोगा हुआ, न किसी को दिया हुआ, वह नष्ट ही होता है।
मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयो न च धूमायितं चिरम् = एक मुहूर्तभर भी प्रज्वलित रहना अच्छा है, परन्तु दीर्घकाल तक धुंआ छोड़ते हुए सुलगना अच्छा नहीं है।
गतं न शुच्यतामनागतं न चिन्त्यताम्, वर्त्तमानं दृश्यताम् = बीते हुए का शोक न करें, जो अभी आया नहीं उसकी व्यर्थ चिन्ता न करें, वर्तमान को अच्छी तरह सोच-समझकर जीएं।

शोको नाशयते धैर्यं शोको नाशयते श्रुतम्।
शोको नाशयते सर्वं नास्ति शोकसमो रिपुः।। = शोक धैर्य को नष्ट कर देता है, शोक शास्त्रज्ञान को भी लुप्त कर देता है, शोक सबकुछ नष्ट कर देता है, अतः शोक के समान दूसरा कोई शत्रु नहीं।

गते शोको न कर्त्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत्।
वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः।। = बीती हुई बात का शोक नहीं करना चाहिए, और भविष्य में क्या होगा इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए, बुद्धिमान लोग वर्तमान काल के अनुसार कार्य में जुट जाते हैं।

यज्जीव्यते क्षणमपि प्रथितं मनुष्यैर्विज्ञानशौर्यविभवार्यगुणैः समेतम्।
तन्नाम जीवितमिह प्रवदन्ति तज्ज्ञाः काकोऽपि जीवति चिराय बलिं च भुङ्क्ते।। = मनुष्यों से जिस जीवन में विज्ञान शूरता तथा ऐश्वर्य आदि सद्गुणों से युक्त होकर क्षणभर भी प्रतिष्ठा के साथ जीया जाता है उसे ही विद्वान लोग वास्तविक जीवन कहते हैं। यूं तो कौआ भी बहुत दिनों तक जीता है और बलि खाकर अपना पेट भरता है।

वाच्यं श्रद्धा समेतस्य पृच्छतेश्च विशेषतः।
प्रोक्तं श्रद्धा विहीनस्य अरण्यरुदितोपमम्।। = विशेष श्रद्धा से युक्त होकर यदि कोई जानने की इच्छा से पूछे तो उससे बात करनी चाहिए। श्रद्धारहित मनुष्यों से कुछ भी कहना निर्जन वन में रोने के समान निरर्थक है।

यस्य न ज्ञायते वीर्यं न कुलं न विचेष्टितम्।
न तेन सङ्गतिं कुर्यादित्युवाच बृहस्पतिः।। = जिसके सामर्थ्य वंश और कार्य का पता न हो, उसके साथ मेल-संगति नहीं करनी चाहिए, ऐसा बृहस्पति ने कहा है।

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।। = अश्रद्धा से जो यज्ञ किया जाता है, जो दान दिया जाता है, जो तप किया जाता है हे पार्थ ! वह असत् अर्थात् न किया हुआ माना जाता है। वह न मरने पर कोई लाभ देता है और न यहां जीते जी कोई लाभ देता है।

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।। = जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को पार कर जाएगी, तब तू उस सबके प्रति उदासीन हो जाएगा, जो कुछ तूने सुनना है या सुना है।

एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोरिति यो बभाषे।
नूनं न दृष्टं कविनापि तेन दारिद्र्यदोषो गुणकोटिनाशी।। = जिस कवि ने यह कहा है कि जहां बहुत सारे गुण हों वहां एक दोष ऐसे छिप जाता है, जैसे चन्द्रमा की किरणों में उसका कलंक। उस कवि ने निश्चय से यह नहीं सोचा कि एक दरिद्रतारूपी दोष सारे गुणों को मिट्टी में मिला देता है।

सर्वे क्षयान्ता निचयः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।। = समस्त संग्रहों का अन्त विनाश है, लौकिक उन्नतियों का अन्त पतन है, संयोग का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है।

क्तवतु प्रत्यय

(क्तवतु प्रत्यय भी निष्ठासंज्ञक है। इस प्रत्यय का प्रयोग भूतकाल कर्त्ताकारक में होता है। क्तवतु प्रत्ययान्त क्रिया के प्रयोग में कर्त्ता में प्रथमा विभक्ति तथा कर्म में द्वितीया विभक्ति का ही प्रयोग होता है। किन्तु क्रिया कर्त्ता के अनुसार चलती है। अर्थात् जो लिङ्ग वचन विभक्ति कर्त्ता में होती है वही लिङ्ग वचन विभक्ति क्रिया में भी होती है। क्तवतु प्रत्ययान्त शब्द भी क्रियारूप में तथा विशेषणरूप में दोनों ही तरह प्रयुक्त होते हैं।)

रामः ग्रामं गतवान = राम गांव गया।
वृक्षात् वायुना पत्रं पतितम् = हवा के कारण पेड़ से पत्ता गिरा।
क्रयार्थं महिला महाऽऽपणं गतवती = खरीददारी के लिए महिला शॉपिंग-मॉल में गई।
अध्ययनार्थं बाल्यकाले कृष्णसुदामानौ सान्दीपनेर्मुनेराश्रमम् उषितवन्तौ = पढ़ने के लिए बचपन में कृष्ण और सुदामा सांदीपनि मुनि के आश्रम में रहे।
भुक्तवान् भजेद् भगवन्तं न बुभुक्षितः = खाली पेट भगवान का भजन नहीं होता।
सदाचाररहिता अधीतवन्तोऽपि अनधीता एव = सदाचाररहित लोग पढ़े हुए भी अनपढ़ ही हैं।
प्रैषकरी भाण्डानि प्रक्षालितवती = बाई ने बरतन साफ कर लिए।
अहं शिविरे मोक्षकरीं विद्यां अधीतवती = मैंने शिविर में मोक्ष देनेवाली विद्या को पढ़ा।
क्रीडितवते पुत्राय माता अपूपान् दत्तवती = खेल चुके बेटे को माता ने मालपूए दिए।
भुक्तवन्तं मा भोजय = जो खा चुके उन्हें भोजन मत दो।
विश्रान्तवन्तः छात्राः कार्यार्थमागच्छेयुः = विश्राम कर चुके छात्र काम करने के लिए आ जाएं।
धावितवत्सु छात्रेभ्यः जम्बीररसं प्राप्स्यते = दौड़ लेने पर छात्रों को नींबू सरबत मिलेगा।
खादितवतां खादितवत्सु वा एको भोजनं परिवेषयेत् = जिन्होंने भोजन कर लिया है, उनमें से एक भोजन बांटे।
दुग्धं दत्तवतीः तृणञ्च जग्धवतीः गावो दृष्ट्वा नचिकेता पितरमवोचत् = जो दूध दे चुकी हैं, चारा खा चुकी हैं, ऐसी बूढी गायों को देखकर नचिकेता ने पिता को कहा।
गुरुकुलात् गृहमागतवतीं पुत्रीं दृष्ट्वा पितरौ मोदितवन्तौ = गुरुकुल से घर आई हुई बच्ची को देखकर माता-पिता खुश हुए।
अल्पाहारं कृतवती शीतला पुनर् लेखनम् आरब्धवती = अल्पाहार (नाश्ता) की हुई शीतल ने पुनः लेखन आरम्भ किया।
मुम्बईनगरं गतवती भागिनेयी मदर्थं शाटिकामानीतवती = मुम्बई गई हुई भानजी मेरे लिए साड़ी लेकर आई।
मृतवतीं भगिनीं दृष्ट्वा मूलशंकरः स्तब्धः सञ्जातवान् = मृत बहन को देखकर मूलशंकर स्तब्ध रह गया।

यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये।। = जब तक जीव देहरूपी घर में रहता है तभी तक घर में हर कोई कुशलक्षेम पूछता है। देह नष्ट होने पर प्राणपखेरू उड़ जाते ही उस देह से जीवनसंगिनी भार्या भी भय मानने लगती है।

पौलस्त्यः कथमन्यदारहरणे दोषं न विज्ञातवान्,
रामेणापि कथं न हेमहारिणस्यासम्भवो लक्षितः।
अक्षैश्चापि युधिष्ठिरेण सहसा प्राप्तो ह्यनर्थः कथं,
प्रत्यासन्नविपत्तिमूढमनसां प्रायो मतिः क्षीयते।। = रावण ने दूसरे की स्त्री का हरण करने में क्यों न बुराई समझी, राम ने भी सोने की हिरण की असम्भवता क्यों न समझी, युधिष्ठिर ने भी जुआ खेलकर अकस्मात् वनवास रूप अनर्थ क्यों पाया, (भविष्य में) शीघ्र आनेवाली विपत्तियों केे कारण जिनका मन भ्रान्त हो गया है ऐसे पुरुषों की बुद्धि प्रायः नष्ट हो जाती है।

(क्त प्रत्यय अकर्मक धातुओं से, गति अर्थवाली धातुओं से तथा भोजन अर्थवाली धातुओं से अधिकरण कारक में भी होता है।)

इदमेषाम् आसितं वर्तते = यह इनकी बैठक (दीवानखाना) है।
आसिते कतिपया अतिथयः सन्ति = बैठक में कुछ अतिथिलोग बैठे हैं।
इदमेषां शयितं सुप्तं वाऽस्ति = यह इनका शयनकक्ष है।
प्रतिदिनं दशवादने रात्रौ शयनार्थं शयितं सुप्तं वा प्रविशति = प्रतिदिन रात को दस बजे शयनकक्ष में सोने के लिए आता है।
इदमेषां स्नातमस्ति = यह इनका स्नानागार है।
स्नाते बालोऽधुना स्नाति = स्नानागार में बच्चा अभी स्नान कर रहा है।
इदमस्माकं स्थितमस्ति, रात्रौ वयमत्र तिष्ठामः = यह हमारा ठहरने का स्थान है, रात को हम यहां ठहरते हैं।
केचनाऽनिकेतानां रेलस्थानकस्य वेदी स्थानं वर्तते = कुछ बेघर लोगों के लिए रेल्वेस्टेशन का फलाट ही ठहरने का स्थान होता है।
ग्रामीणानां तडाग एव स्नातं भवति = गांववालों के लिए तालाब ही स्नानागार होता है।
मम पितुर्यानस्येदं स्थितमस्ति = मेरे पिता के गाडी का ये गैरेज है।
तीर्णमिदम् = यह तरण-ताल है।
सुकुमाराणां सृतमिदम् = यह छोटे बच्चों की घिसलपट्टी है।
किमिदं युष्माकं भुक्तमस्ति ? = क्या यह तुम्हारा खाने का स्थान (डायनिंग रूम) है ?


संस्कृतं वद आधुनिको भव।
वेदान् पठ वैज्ञानिको भव।।


इति

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