पाश्चात्य जगत् की वेद-विषयक ऐसी अवधारणाओं का एक बड़ा कारण बहुधा हमारे यहाँ हुए अनर्गल भाष्य भी ही हैं। सायण, महीधर या उव्वट जैसे तथाकथित भाष्य वेदों को और भला क्या प्रतिपादित करवाते हैं? यही सब तो। अनार्ष पद्धति से किए गए देवभाषा के भाष्यों के लिए यदि संस्कृत वह भी अनार्ष पद्धति के व्याकरण का आश्रय लिया जाएगा तो इसमें दोष हमारा अधिक है। अष्टाध्यायी, महाभाष्य या काशिका वाली परिपाटी से महर्षि दयानन्द ने जो स्थान वेदों को दिलवाया उसे पढ़कर तो किसी ने वेदों को गडरियों के गीत, या हिंसाश्रयी, या अनर्गल किसी सम्बोधन से परिभाषित नहीं किया।
प्रिय मित्र , मैंने आपका संस्कृत में ब्लॉग देखा मुझको बहुत ही अच्छा लगा.... और में ये दावे से कह सकता हूँ ...की आपका ये प्रयास बहुत ही सफल होगा और साथ-साथ में पाठको को संस्कृत का ज्ञान भी होगा ... आज संस्कृत भाषा न जाने किस दौर में कहाँ खोती जा रही है? हालांकि ये सभी भाषायों की जननी है... पर अगर आप जैसे मित्रों के प्रयास से खूब प्रचार में आ सकता है...और वह कोशिश आप कर भी रहे है.... लेकिन मित्र एक बात कहना चाहता हूँ ...की आपने जो संकृत में आलेख लिखे है, अगर उसके साथ-साथ उनका हिंदी में भी अनुवाद हो जाए तो चार चाँद लग जाए.... इस से सबसे ज्यादा ये फायदा ये होगा की संस्कृत न जानने वाले भी इस ब्लॉग को सरलता से पड सकेंगे और उनको ये भी ज्ञान हो जाएगा की संस्कृत के महत्वता क्या है ?हम जैसे लोग संस्कृत तो बहुत थोडा जानते है, यदि हिंदी अनुवाद हो जाए तो संस्कृत को धीरे समझने में आसानी होगी और फिर संकृत का ज्ञान भी हो जाएगा ... मैं ये बात बहुत ही अच्छी तरह से जानता हूँ ..की पहले संस्कृत में और फिर उसका अनुवाद करना सरल नहीं है क्योंकि उस से काम और भी बढ जाता है... एक लेख लिखने के साथ-साथ उसका अनुवाद करना समय को बदा सकता है... पर मित्र अगर हम संस्कृत का प्रचार प्रसार करना चाहते है तो उसको जन सामान्य की भाषा बनाना ही पड़ेगा... आगे मित्र आपकी मर्जी मैंने तो अपनी बात रखी है अब उसको लेकर चलना या नहीं, तो आपका काम है ... बुरा मत मानना ...मित्र मुझको ठीक लगा तो मैंने यह कह दिया है... और हाँ एक बार फिर से आपको बहुत बधाई देता हूँ इस ब्लॉग के लिए की आपने बहुत ही अच्छा प्रयास किया है
प्रिय भाई आनंद! आपका प्रयास साधुवाद के योग्य है। आप जैसे लोगों का प्रयास संस्कृत और भारतीय संस्कृति दोनो को उनका उच्चतम स्थान दिलवाएगा, ईश्वर आपको इस सत्कार्य के लिए अधिकतम सामर्थ्य प्रदान करे। हम सब आपके साथ हैं यथाशीघ्र मैं भी आपके आलेख पर संस्कृत में टिप्पणी कर सकूंगा ऐसा प्रयत्न है। पुनः साधुवाद स्वीकारें। मेरा संपर्क ०९२२४९६५५५ है यदि कभी मुंबई आगमन हो तो सूचित करें हम साथ समय बिताएंगे आप हमारे मेहमान रहेंगे। डॉ.रूपेश श्रीवास्तव
आप का बहुत धन्यवाद, इसलिये भी कि आप मेरे संस्कृत के प्रसार के प्रयास में सहयोग दे रहे हैं और इसलिये भी कि आप ने मुझे अपना आतिथ्य स्वीकार करने का अवसर दिया है।
8 टिप्पणियाँ
त्वदीयं वस्तु गोविदं तुभ्यमेव समर्पयामि.
जवाब देंहटाएंअति सुन्दरं आलेखं।
जवाब देंहटाएंपाश्चात्य जगत् की वेद-विषयक ऐसी अवधारणाओं का एक बड़ा कारण बहुधा हमारे यहाँ हुए अनर्गल भाष्य भी ही हैं।
जवाब देंहटाएंसायण, महीधर या उव्वट जैसे तथाकथित भाष्य वेदों को और भला क्या प्रतिपादित करवाते हैं? यही सब तो।
अनार्ष पद्धति से किए गए देवभाषा के भाष्यों के लिए यदि संस्कृत वह भी अनार्ष पद्धति के व्याकरण का आश्रय लिया जाएगा तो इसमें दोष हमारा अधिक है। अष्टाध्यायी, महाभाष्य या काशिका वाली परिपाटी से महर्षि दयानन्द ने जो स्थान वेदों को दिलवाया उसे पढ़कर तो किसी ने वेदों को गडरियों के गीत, या हिंसाश्रयी, या अनर्गल किसी सम्बोधन से परिभाषित नहीं किया।
प्रिय मित्र ,
जवाब देंहटाएंमैंने आपका संस्कृत में ब्लॉग देखा मुझको बहुत ही अच्छा लगा.... और में ये दावे से कह सकता हूँ ...की आपका ये प्रयास बहुत ही सफल होगा और साथ-साथ में पाठको को संस्कृत का ज्ञान भी होगा ... आज संस्कृत भाषा न जाने किस दौर में कहाँ खोती जा रही है? हालांकि ये सभी भाषायों की जननी है... पर अगर आप जैसे मित्रों के प्रयास से खूब प्रचार में आ सकता है...और वह कोशिश आप कर भी रहे है.... लेकिन मित्र एक बात कहना चाहता हूँ ...की आपने जो संकृत में आलेख लिखे है, अगर उसके साथ-साथ उनका हिंदी में भी अनुवाद हो जाए तो चार चाँद लग जाए.... इस से सबसे ज्यादा ये फायदा ये होगा की संस्कृत न जानने वाले भी इस ब्लॉग को सरलता से पड सकेंगे और उनको ये भी ज्ञान हो जाएगा की संस्कृत के महत्वता क्या है ?हम जैसे लोग संस्कृत तो बहुत थोडा जानते है, यदि हिंदी अनुवाद हो जाए तो संस्कृत को धीरे समझने में आसानी होगी और फिर संकृत का ज्ञान भी हो जाएगा ... मैं ये बात बहुत ही अच्छी तरह से जानता हूँ ..की पहले संस्कृत में और फिर उसका अनुवाद करना सरल नहीं है क्योंकि उस से काम और भी बढ जाता है... एक लेख लिखने के साथ-साथ उसका अनुवाद करना समय को बदा सकता है... पर मित्र अगर हम संस्कृत का प्रचार प्रसार करना चाहते है तो उसको जन सामान्य की भाषा बनाना ही पड़ेगा... आगे मित्र आपकी मर्जी मैंने तो अपनी बात रखी है अब उसको लेकर चलना या नहीं, तो आपका काम है ... बुरा मत मानना ...मित्र मुझको ठीक लगा तो मैंने यह कह दिया है... और हाँ एक बार फिर से आपको बहुत बधाई देता हूँ इस ब्लॉग के लिए की आपने बहुत ही अच्छा प्रयास किया है
आप सब की टिप्पणियों के लिये धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंदीपक जी आपके सुझाव के लिये आभार।
मैं आपकी उक्ति को चरितार्थ करने का प्रयास करूंगा।
आ्गे भी अपने अमूल्य विचार और प्यार देते रहें।
धन्यवाद
प्रिय भाई आनंद! आपका प्रयास साधुवाद के योग्य है। आप जैसे लोगों का प्रयास संस्कृत और भारतीय संस्कृति दोनो को उनका उच्चतम स्थान दिलवाएगा, ईश्वर आपको इस सत्कार्य के लिए अधिकतम सामर्थ्य प्रदान करे। हम सब आपके साथ हैं यथाशीघ्र मैं भी आपके आलेख पर संस्कृत में टिप्पणी कर सकूंगा ऐसा प्रयत्न है। पुनः साधुवाद स्वीकारें। मेरा संपर्क ०९२२४९६५५५ है यदि कभी मुंबई आगमन हो तो सूचित करें हम साथ समय बिताएंगे आप हमारे मेहमान रहेंगे।
जवाब देंहटाएंडॉ.रूपेश श्रीवास्तव
आदरणीय रूपेश भाई जी
जवाब देंहटाएंआप का बहुत धन्यवाद, इसलिये भी कि आप मेरे संस्कृत के प्रसार के प्रयास में सहयोग दे रहे हैं और इसलिये भी कि आप ने मुझे अपना आतिथ्य स्वीकार करने का अवसर दिया है।
कभी मुंबई आया तो आपके दर्शन जरूर होंगे।
महापण्डितराहुलसांकृत्यायन: च भदंतआनंदकौशल्यायन: मूर्खा:? किं कारणात् अत्र प्रस्तुत-व्याख्या स्वीकारणीया? शब्दस्य च अर्थस्य मतभेदा: निर्देशयत: पाठकं अनेकार्थकव्याख्या…संस्कृतस्य ज्ञानं अत्यल्पं…क्षमा किंचित् मूर्खताय…
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