"भारत-भारती-वैभवं"

"भारत-वैभवं"
वन्दे नितरां भारतवसुधाम्।
दिव्यहिमालय-गंगा-यमुना-सरयू-कृष्णशोभितसरसाम् ।।
मुनिजनदेवैरनिशं पूज्यां जलधितरंगैरंचितसीमाम् ।
भगवल्लीलाधाममयीं  तां नानातीर्थैरभिरमणीयाम् ।।
अध्यात्मधरित्रीं गौरवपूर्णां शान्तिवहां श्रीवरदां सुखदाम् ।
सस्यश्यामलां कलिताममलां कोटि-कोटिजनसेवितमुदिताम् ।।
वीरकदम्बैरतिकमनीयां सुधिजनैश्च परमोपास्याम् ।
वेद्पुराणैः नित्यसुगीतां राष्ट्रभक्तैरीड्याम्  भव्याम् ।।
नानारत्नै-र्मणिभिर्युक्तां  हिरण्यरूपां  हरिपदपुण्याम् ।
राधासर्वेश्वरशरणोsहं  वारं  वारं  वन्दे रम्याम्  ।।

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"देवभारती-वैभवं"

सर्वेश्वर !  सुखधाम !  नाथ् ! मे संस्कृते रुचिरस्ति ।
संस्कृतमनने संस्कृतपठने संस्कृतवरणे संस्कृतशरणे ।
चेतो  नितरां भवतात्कृपया ममाsभिलाषोsस्ति ।।
श्रुतिशास्त्रेषु  मनुशास्त्रेषु नयशास्त्रेषु रसशास्त्रेषु,
प्रगतिस्तीव्रा भवतादिति मे भावनाsस्ति ।।
लेखन-पतुत प्रवचनपटुता कर्मणि पतुत सेवा पटुता,
सततं माधव !  भवतादिह्  मे याचनाsस्ति ।।
वचने मृदुता चेतसि रसता स्वात्मनि वरता दृष्टौ समता,
राधासर्वेश्वरशरणस्य प्रबला कामनाsस्ति ।।


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टिप्पणियाँ

  1. ये दोनो छन्द श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ के वर्तमान आचार्य परम् विद्वान् जगद्गुरु श्रीराधासर्वेश्वरशरणदेवाचार्य जी महाराज द्वारा रचित "भारत-भारती-वैभवं" से उधृत है . आचार्यश्री द्वारा विरचित - "भारत-भारती-वैभवं" का विषय विवेचन भी विलक्षण है. ग्रन्थ की विषय वस्तु "भारत वैभवं" तथा "देव भारती वैभवं" दो शीर्षकों में वर्णित है.

    "भारत-वैभवं"
    भारत-भारती-वैभवं - मातृभूमि वंदना का महा गीतिकाव्य है जिसके प्रत्येक पद में भूमि वैशिष्ट्य का भावात्मक स्तवन और नमन हुआ है.
    यहा प्रस्तुत इसका प्रथम वंदना-पद की अत्यंत कलात्मक,सर्वांग सुन्दर और मधुरतम है. इस पद में वर्णित भारतीयता की रागात्मक उपासना अभीष्ट भारती-भाव का बीजमंत्र है.भारत-वसुधा के वैभव का ऐसा पांडित्यपूर्ण महनीय वर्णन कवि व्यक्तित्व की गहनतम ज्ञान गरिमा और राष्ट्रभक्ति की सर्वोच्चता का परिचायक है. इस पद में संनिहत भारतीय संस्कृति और संस्कृत का अद्भुत सामंजस्य,ज्ञान और भक्ति की पराकाष्टा तथा राष्ट्र के प्रति सर्व-समर्पित-रागात्मकता, संस्कृत के प्रकांड पंडित- आचार्यश्री जैसे व्यक्तित्व से ही संभावित है.

    "देवभारती-वैभवं"
    ग्रन्थ के द्वितीय शीर्षक "देवभारती वैभववर्णन" में देववाणी संस्कृत का वैशिष्ट्य चित्रित किया गया है. वस्तुतः देववाणी संस्कृत ही हमारी संस्कृति का पर्याय है. प्राचीन ग्रंथों का सारा ज्ञानकोष भारतीय संस्कृति का आधार है और इन दिव्य ग्रंथों की भाषा देववाणी संस्कृत है. अतः भारतीय संस्कृति का ज्ञान संस्कृत के बिना दुर्लभ है. कृतिकार आचार्यश्री ने यहाँ संस्कृति प्रदायनी संस्कृत का भावातिरेक से स्तवन एवं वंदन किया है. संस्कृत भारतवर्ष की सभी भाषाओँ की मूल है, भावात्मक समरसता और राष्ट्रिय एकता की द्रष्टि से भी इसका अध्यन परमावश्यक है.
    "देवभारती" के इस पद में संस्कृत की अत्यंत भावपरक महिमा मंडित हुई है. संस्कृत में संस्कृत के प्रति रागात्मक-कलात्मक-भक्तिपरक, पद लालित्यपूर्ण यह देनी निवेदन द्रष्टव्य है.
    संस्कृत की उपादेयता का ज्ञान संस्कृत के प्रकांड विद्वान आचार्यश्री को है, इसीलिए इस पद में वे अपने परमाराध्य श्रीसर्वेश्वर भगवान् से संस्कृत के भाषण-प्रवचन, मनन-लेखन, वरणादि की पटुता का वरदान मांगते है.

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  2. धन्‍यास्‍तु धन्‍यास्तु

    राष्‍ट्रभक्तिसमन्विता एषा सुन्‍दरी रचना पठित्‍वा मन: प्रसन्‍न: जात: ।

    नानारत्नै-र्मणिभिर्युक्तां हिरण्यरूपां हरिपदपुण्याम् ।
    राधासर्वेश्वरशरणोsहं वारं वारं वन्दे रम्याम् ।।

    धन्‍यवादा: ।।

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  3. जिससे स्नेह होता है उसका हर उदबोधन,
    हर वक्तव्य मन को भाता है.
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    यहाँ अमित जी ने 'भारत वैभव' और 'देववाणी वैभव' का चित्रण मनमोहक किया है.
    आर्यभाषा में किये अर्थों से संस्कृत की जटिलता काफी कम होकर मस्तिष्क में प्रवेश कर गयी.
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    धन्य है आपका सांस्कृतिक-प्रेम.

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  4. बहुत बढ़िया , माँ भारती का वैभव सदा अमर रहे

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