यदा किंचिज्ज्ञोSहंद्विप इव मदान्ध: समभवं
तदासर्वज्ञोSस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मन: ।
यदा किंचित्किंचिद्बुधजनसकाशादवगतं
तदा मूर्खोSस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगत: ।। 8
व्याख्या -
यदा अहं अल्पज्ञ: आसम् तदा गज इव मदान्ध: आसम् यत् मत्सदृशं नास्ति अस्यां पृथिव्यां विद्वान् कश्चित् । किन्तु यदा विदुषां सम्पर्कं प्राप्य किंचित्-किंचित् ज्ञानं जातं तदा अवगमनमभवत् यत् अहं तु मूर्ख: एव अस्मि इति, पुनश्च मम अभिमानं ज्वर इव समाप्तमभवत् ।
हिन्दी -
जब मैं अल्पज्ञ था तब हाथी की भांति मुझे अभिमान था, तब मैं ही सर्वज्ञ हूँ ऐसा मेरा मन समझता था । जब मैं विद्वानों के सम्पर्क में रहकर कुछ-कुछ जानकार हुआ तब मुझे यह ज्ञात हुआ कि वस्तुत: मैं मूर्ख हूँ और मेरा अभिमान ज्वर की भांति उतर गया ।
छन्द - शिखरिणी छन्द: ।
छन्दलक्षणम् - रसे रुद्रैश्छिन्ना यमनसभलाग: शिखरिणी ।
हिन्दी छन्दानुवाद -
गज के समान था मदान्ध लिये छुद्र-ज्ञान, सोंचा करता था कोई क्या मेरे समान है ।
मैं हूँ सर्वज्ञ, मुझको है सब कुछ ज्ञात, जितने भी नीति, वेद, शास्त्र व पुराण हैं ।
विदुषों की संगति में बैठ के जो सीखा कुछ तो पता चला कि अभी तुच्छ-लव-ज्ञान है ।
विज्ञ नहीं अज्ञ हूँ मैं इसकी प्रतीति हुई, ज्वर के समान दूर हुआ अभिमान है ।।
इति
अनुकरणीय सन्देश
जवाब देंहटाएंअर्थात् हमें अपनी ही बात नहीं ब्लकि दूसरों(ज्ञानियों) के विचारों से अवगत होकर ही अपने विचार रखने चाहिए।
वीडियो भी प्राप्त हो सकती है टीजीटी पीजीटी संस्कृत की तो कृपया बताने की कृपा करें
जवाब देंहटाएंअभिनव प्रयास,
जवाब देंहटाएंसूक्तियों सुभाषितों के सरल अर्थ और विवेचना सहित प्रस्तुतिकरण आमजन के बीच उन्हें प्रचारित करने का और अधिक प्रयास हो.... रोज एक सूक्त सुभाषित सोसल मीडिया पर पोस्ट हो तो बढिया है