पाठ: (11) तृतीया विभक्ति (3) + अयादि सन्धि ।।


(सह, साकम्, सार्धम्, समम् के साथ तृतीया विभक्ति होती है)
नक्षत्रेण सह चन्द्रमा उदेति = ताराओं के साथ चन्द्रमा उगता है ।
अन्यया भाषया सह संस्कृतमपि अवश्यं शिक्षेयुः = अन्य भाषाओं के साथ संस्कृत को भी अवश्य सीखें।
रावणेन सह कुम्भकर्णमपि जघान राम = रावण के साथ राम ने कुम्भकरण को भी मारा।
वात्या सह वर्षा अपि अभूत् = आंधी के साथ-साथ बारिश भी हुई।
दुग्धेन सह घृतमप्यलिक्षत् मार्जारी = बिल्ली दूध के साथ घी भी चाट गई।
शाकेन सह शदः अपि स्यात् = सब्जी के साथ सलाद भी होवे / होनी चाहिए।
वास्तुकेन सह साकं सार्धं समं वा पै्रयङ्गवी स्वादुतां याति = बथुए के साथ बाजरे की रोटी स्वादिष्ट लगती है।
पुलाकेन सह साकं सार्धं समं वा दाधिकं स्वद्यते = पुलाव के साथ कढ़ी स्वादिष्ट लगती है।
आलूकेन सह रक्ताङ्गं कलायं च पच = आलू के साथ टमाटर-मटर पका।
आलूकेन सह सर्वाणि शाकानि संगच्छन्ते = आलू के साथ समस्त सब्जियों का मेल है।
सन्धितेन सह अवलेहमपि वाञ्छति = आचार के साथ चटनी भी चाहता है।
गुर्जरप्रान्तीयाः चिपिटान्नेन सह किलाटजं रोचयन्ति = गुजराती चिवड़े के साथ पेंडा पसन्द करते हैं।
आन्ध्रप्रदेशीयाः ओदनेन सह चारुं भावयन्ति = आन्ध्रप्रदेश के लोग भात के साथ रसम् पसन्द करते हैं।
पावको लोहेन सह मुद्गरैः अभिहन्यते = लोहे के साथ अग्नि भी हथोड़े सेे पीटी जाती है।
केन सह साधारणीकरोमि दुःखम् ? = किसके साथ मैं दुःख सांझा करुं ?
शशिना सह याति कौमुदी = चांदनी चांद के साथ जा रही है।
हनुमान् वानरैः सह जानकीं मार्गयामास = हनुमान ने वानरों के साथ (मिलकर) सीता को ढूंढ लिया।
दुर्जनेन समं सख्यं न कारयेत् = दुर्जन के साथ मित्रता न करें।
धर्मेण सह यात्रां करोत्यात्मा, न बान्धवैः = आत्मा धर्माधर्मरूप कर्मों के साथ यात्रा करता है, न कि बन्धु-बान्धवों के साथ।
श्वश्र्वा सह वधूः संजानीते = बहू की सास के साथ पटती है।
जानता समं गमेमहि = हम विद्वानों के साथ विचरण करें।
सत्येन सह वाक् मधुरा हितकारिणी अपि भवेत् = सत्य के साथ-साथ वाणी मीठी और हितकारी भी होनी चाहिए।
अधर्मेण सह सन्धिः दुःखकर्येव = अधर्म के साथ समझौता दुःख ही देता है।
युवपलितः पलितैः केशैः सह सौंदर्यगृहं प्रविष्टो युवतां याति = सफेद बालोंवाला युवा सफेद बालों के साथ ब्यूटीपार्लर में जाकर युवा हो जाता है।
महाभारत युधि क्षत्रियैः सह बहवो बुधोऽपि मृताः = महाभारत युद्ध में क्षत्रियों के साथ-साथ बहुत से विद्वान भी मारे गए।

(हेतुवादी शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है।)

अध्ययेन अध्यापनेन च गुरुकुलं उपवसामि = पढ़ने-पढ़ाने के लिए गुरुकुल में रहता / रहती हूं।
विद्यया विनयः प्राप्नोति = विद्या से विनय प्राप्त होता है।
दिष्ट्या भवादृशां दर्शनं लब्धम् = भाग्य से आप के दर्शन प्राप्त हुए।
गुणैः पूज्यते विद्वान् सर्वत्र = विद्वान् सभी जगह गुणों से पूजा जाता है।
ज्ञानेन मुक्तिः = ज्ञान (विवेकज्ञान) से मुक्ति होती है।
दिलीपः गोसेवया पुत्ररत्नं लेभे इति श्रूयते = दिलीप ने गोसेवा से पुत्रप्राप्ति की थी ऐसा सुना जाता है।
संस्कारेण शूद्रोऽपि द्विजतां याति = संस्कार से शूद्र (विशिष्ट सामर्थ्य रहित) भी द्विज (विशिष्ट सामर्थ्य युक्त) हो जाता है।
तपसा क्रियते यज्ञिया तनूः = तप से शरीर (=जीवन) यज्ञमय किया जाता है।
काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमतां।
व्यसनेन तु मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।। = बुद्धिमानों का समय तलस्पर्शी ग्रन्थों की रसप्रद चर्चा के कारण व्यतीत होता है। जब कि मूर्खों का समय बुरी आदतों को पूरा करने तथा निद्रा व झगड़े में बीत जाता है।
सः श्रद्धया पूर्वानपि अतिशेते = वह श्रद्धा के कारण पूर्वजों को भी अतिक्रमण कर गया।
गृहिण्या गृहं शोभते नश्यतेऽपि = गृहिणी से घर की शोभा होती है तथा नाश भी होता है।
व्यायामेन वर्धते वपुः = व्यायाम से शरीर बढ़ता है (स्वस्थ रहता है)।
मम छिद्रेण लब्धावकाशः मां पीडयति = मेरी कमजोरी का फायदा उठाकर मुझे परेशान कर रहा है।
परिषदि पराजितो मूत्रपदेन प्रस्थितः = सभा में हारा हुआ पेशाब के बहाने भाग गया।
पृष्टो वैयाकरणखसूचिः उत्तरम् अप्राप्य मूत्रपदेन प्रातिष्ठत् = कुत्सित/मूर्ख वैयाकरण पूछे जाने पर उत्तर न बन पाने से पेशाब के बहाने भाग गया ।
अनामयापदेशेन विद्यार्थी विद्यालयात् पलायितः = बिमारी का बहाना बनाकर बिद्यार्थी विद्यालय से भाग गया ।
उच्चारपदेन गृहात् अगमत् = शौच के बहाने से घर से चला गया ।
शिरोर्त्त्यपदेशेन(शिरोर्त्ति-अपदेशेन) स्नुषा शेते = सिरदर्द का बहाना बनाकर बहू सो रही है ।
पृष्ठपीडापदेशेन पृष्ठं मर्दयति पतिः = पीठ की पीडा के बहाने से पति पीठ पर मसाज करवा रहा है ।
पठनापदेशेन प्रिया प्रेमिणा सह पलायिता = पढ़ने के बहाने से प्रिया प्रेमी के साथ पलायन कर गई ।
मांसलोलुपाः वेदापदेशेन वैदिकीं हिंसां प्राचालयत् = मांसलोलुपों ने वेद के बहाने से वैदिकी हिंसा (यज्ञबलि) को चलाया ।
व्यापारपदेन युरोपीयाः भारतं प्रावेशत् = व्यापार के बहाने से अंग्रेजों ने भारत में प्रवेश किया ।
अन्धापदेशेन धूर्त्तः भिक्षां याचते = अन्धा बन कर धूर्त्त भीख मांग रहा है ।
शल्यचिकित्सापदेशेन वैद्यः वृक्कम् अचूचुरत् = सर्जरी के बहाने से डाक्टर ने किडनी चुरा ली ।
दानापदेशेन लुण्टाकः श्रेष्ठिणम् अस्नापयत् = दान के बहाने से लुटेरा लाला जी को नहला गया ।
दैवदुर्विपाकेन व्यसनेषु पतितोऽपि पुरुषार्थेन उद्गच्छति = बदकिस्मत के कारण दुःखों में फंसा हुआ भी पुरुषार्थ से ऊपर उठ जाता है।
संस्कारेण शाकं स्वदुतां याति मनुष्यैश्च शिष्टताम् = संस्कार (=बघार) से सब्जी स्वादिष्ट लगती है और मानव शिष्ट बनता है।
अजीर्णतया जायन्ते रोगाः = अपच के कारण रोग होते हैं।
धर्मेण धार्यते धरा = धर्म के कारण से धरा टिकी है।
असत्यमपि सत्येनैव जीवति, तस्माद् विजयतां सत्यम् = झूठ भी सच के सहारे ही चलता है इसलिए सत्य की जय हो।

(जिस चिह्न से किसी व्यक्ति या वस्तु का बोध होता है, उसमें तृतीया विभक्ति होती है।)

जटाभिः यतिः प्रतीयते = जटा से संन्यासी प्रतीत होता है।
शिरस्त्रेण राष्ट्रीयस्वयं-सेवक-संघी भाति = टोपी से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य लग रहा है।
गणवेशेन विद्यार्थी इव गम्यते = गणवेश से विद्यार्थीसा जान पड़ता है।
शिखया ब्रह्मचारी प्रतीयते = शिखा से ब्रह्मचारी लगता है।
वस्त्रेण संन्यासिनी बुध्यते = कपड़ों से संन्यासिनी लग रही है।
गलपट्टिकया विदेशी ज्ञायते = टाई से विदेशी जान पड़ता है।
भिदया भित्तिः पुरातना प्रतीयते = दरार से दीवार पुरानी लग रही है।
छदिषः कालिम्ना अग्निहोत्री परिवारः प्रतीयते = छत की कालीमा से अग्निहोत्री परिवार लगता है।
वर्णेन यानं नूतनं भाति = रंग से तो लगता है कि गाड़ी नई है।
यज्ञोपवीतेन माणविका उपनीता प्रतीयते = यज्ञोपवीत से निश्चय होता है कि बच्ची का उपनयन संस्कार हो चुका है।

अयादि सन्धिः

एचोऽयवायावः। एच् = ए, ओ, ऐ, औ,। अच् = समस्त स्वर। सूत्रार्थ: ए को अय्, ओ को अव्, ऐ को आय् तथा अव् को आव् हो जाता है यदि अच् (= स्वरों में से कोई भी) बाद में हो तो।

ए + अच् = ए को अय्
ओ + अच् = ओ को अव्
ऐ + अच् = ऐ को आय्
औ + अच् = ए को आव्

(यदि पदान्त में ‘ए’ तथा ‘ओ’ के बाद ‘अ’ होगा तब यह सन्धि कार्य नहीं होगा।)

अपदान्त में होनेवाली अयादि सन्धि शब्दनिर्माण की प्रक्रिया में देखनेयोग्य होने से यहां उसके उदाहरण नहीं दिए जाएंगे।

पदान्त में अयादि-सन्धि से आए हुए ‘य’ तथा ‘व’ का विकल्प से ‘अ’ वर्जित अच् याने स्वर के परे रहते लोप हो जाता है अतः दो रूप बनते हैं यथा-

के + आसते = कय् + आसते = क आसते / कयासते।
कयासते / क आसते अत्र = यहां कौन-कौन बैठते हैं ?

अस्मै + उद्धर = अस्माय् + उद्धर = अस्मा उद्धर / अस्मायुद्धर।
अस्मायुद्धर जलं कूपात् / अस्मा उद्धर जलं कूपात् = इसके लिए कूंए से जल निकालो।

असौ + आदित्यः = असाव् + आदित्यः = असा आदित्यः / असावादित्यः।
असावादित्यः उदेति पश्य / असा आदित्यः उदेति पश्य = देखो यह सूर्य उग रहा है।

नौ + अवतु = नाववतु।
ओं सहनाववतु = हे सर्वरक्षक हम दोनों की साथ-साथ रक्षा करो।

नौ + अधीतम् = नावधीतम्।
तेजस्वि नावधीतमस्तु = हमारा पढ़ना प्रकाशित होवे (=फैले)

मे + आसन् = मय् + आसन् = म आसन्।
घृतं मे चक्षुरमृतं म आसन् = मेरी आंखों में स्नेह और मेरी वाणी में मिठास है।

अग्ने + आयाहि = अग्नय् + आयाहि = अग्न आयाहि।
अग्न आयाहि वीतये = हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! उत्तम ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ति के लिए आप हमें प्राप्त हूजिए।

वायो + आयाहि = वायव् + आयाहि = वायवायाहि।
वायवायाहि दर्शतेमे सोमा अरङ्कृता = हे वायो ! (= अनन्त बलेश्वर) आप आइए और देखिए ये सोम (= श्रेष्ठ पदार्थ) आप के लिए सजाकर रखे हैं।

वै + एतस्माद् = वाय् + एतस्माद् = वा एतस्माद्।
तस्माद् वा एतस्मादात्मना आकाशः सम्भूतः = उस परमेश्वर की ही प्रेरणा से ही इस प्रकृति से आकाश उत्पन्न हुआ है।

वै + इदम् = वाय् + इदम् = वा इदम्।
मघवन् मर्त्यं वा इदं शरीरम् = हे इन्द्र (= जीव) यह शरीर निश्चय से मरणधर्मा है।

आचार्या शीतल जी आर्ष गुरुकुल अलियाबाद
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इति

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