पाठ: (28) सप्तमी विभक्ति (2)


(वैषयिक आधार:- विषयता सम्बन्ध से जब किसी को आधार माना जाता है, तब वह वैषयिक आधार कहाता है।)
मुमुक्षोः मोक्षे इच्छाऽस्ति = मुमुक्षु की मोक्ष (के विषय) में इच्छा है।
सर्वेषां व्याकरणे रुचिर्न भवति = सब की व्याकरण (के विषय) में रुचि नहीं होती।
परमे ब्रह्मणि आस्तिकस्य महति भक्तिरस्ति = आस्तिक की परब्रह्म (के विषय) में बहुत भक्ति है।
सत्यवादिषु सर्वेषां श्रद्धा भवति = सत्यवादियों (के विषय) में सबकी श्रद्धा होती है।
परदारेषु न वर्त्तितव्यम् = पराई स्त्रियों के साथ व्यवहार नहीं करना चाहिए।
किन्नु खलु बालेऽस्मिन् स्निह्यति मे मनः = मेरा मन इस बालक को प्यार करता है।
तापसकन्यायां शकुन्तलायां दुष्यन्तस्याभिलाषोऽस्ति = मुनिकन्या शकुन्तला में दुष्यन्त की अभिलाषा है।
चलचित्रेषु अनुरक्तेयं कन्या आदिनं चलचित्राण्येव पश्यति = फिल्मों में आसक्त यह कन्या दिनभर पिक्चरें देखती है।
अयोध्यावासिनः रामे दृढमनुरक्ताः आसन् = अयोध्यावासियों का राम के प्रति खूब अनुराग था।
पिता मयि भृशं स्निह्यति = पिता मुझे खूब चाहते हैं।
मातुरपि मयि स्नेहो वर्तते = माता का भी मुझ पर स्नेह है।
वस्त्रेषु केशेषु चासक्ताः अद्यतनाः युवतयः उन्मुक्ताः जाताः सन्ति = कपड़ों और बालों में आसक्त आज की युवतियां पागल हो रही हैं।
विद्यायां रक्तानां शृङ्गारेण किम् ? = विद्यार्ज में लगे हुओं को फैशन (सज-धज) से क्या लेना-देना..?
दुर्योधने मूढोऽयं धृतराष्ट्रः भारतं विनाशतामनयत् = दुर्योधन में मोहित धृतराष्ट्र भारत को विनाश की ओर ले गया।
क्षत्रियेषु कुपितोऽयं परशुरामः क्षितिमिमां क्षत्रियविहीनामकरोत् = क्षत्रियों पर कुपित इस परशुराम ने धरा को क्षत्रियों से रहित कर दिया।
खलेषु विश्वासो न कर्त्तव्यः = दुष्टों पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
मिथ्यावादिषु न विश्वसेत् = झूठे व्यक्ति पर विश्वास न करे।
दाने तपसि शौर्ये च यस्य न प्रथितं यशः।
विद्यायामर्थलाभे च मातुरुच्चार एव स।। = दान, तप, शौर्य, विद्या-प्राप्ति और धनलाभ में जिसकी कीर्ति न फैली वह पुत्र नहीं है अपितु माता के द्वारा उत्पन्न मांस का लोथड़ा मात्र है।
यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः।
यत्तीर्थबुद्धिः सलिलेन कर्हिचित् जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः।। = जो वात-पित्त-कफमय शरीर को आत्मा मानता है, जो स्त्री-पुत्रादि को अपना समझता है, जो मूर्ति में पूज्यबुद्धि रखता है, जो जल में तीर्थबुद्धि रखता है ऐसा मनुष्य विद्वानों की दुष्टि में गोखर अर्थात् अत्यन्त मूर्ख है।
सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया।
सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया।। = स्त्री को सदा प्रसन्न रहना चाहिए, गृहकार्यों में वह कुशल हो, घर के बर्तन आदि को स्वच्छ तथा घर को सफाई, लेपन आदि द्वारा शुद्ध रखनेवाली हो, खर्च करने में खुले हाथवाली न हो अर्थात् निरर्थक धन न लुटाए ऐसी हो।
अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।
अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतत्प्रशस्यते।। = मन, वचन और कर्म से किसी भी प्राणी से द्रोह याने वैर न करना, सब पर दया करना और दान देना यह शील कहाता है जिसकी सभी प्रशंसा करते हैं।
तावद् भयेषु भेतव्यं यावद्भयमनागतम्।
आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमशङ्कया।। = आपत्तियों तथा संकटों से तभी तक डरना चाहिए जब तक वे दूर हैं, परन्तु जब भय और संकट सिर पर आ पड़े तब शंकारहित होकर उस पर टूट पड़ना चाहिए अर्थात् उस भय या संकट को दूर करने का यत्न करना चाहिए।
एकोदरसमुद्भूता एकनक्षत्रजातकाः।
न भवन्ति समाः शीले यथा बदरकण्टकाः।। = एक ही माता से उत्पन्न अथवा एक ही नक्षत्र में जन्म लेनेवाले सभी बालक गुण-कर्म-स्वभाव में समान नहीं होते, जैसे एक ही पेड़ में उत्पन्न होनेवाले बेर और कांटे समान नहीं होते।
न स्वसुखे वै कुरुते प्रहर्षं चान्यस्य दुःखे भवति विषादी।
दत्त्वा न पश्चात्कुरुतेऽनुतापं स कथ्यते सत्पुरुषार्यशीलः।। = जो व्यक्ति अपने सुख में खुश नहीं होता, दूसरों के दुःख में दुःखी हो जाता है तथा दान देकर जो पश्चाताप नहीं करता, वही सज्जनों में आर्य पुरुष माना जाता है।
सखायः प्रविविक्तेषु भवन्त्येताः प्रियंवदाः।
पितरो धर्मकार्येषु भवन्त्यार्तस्य मातरः।। = पत्नी एकान्त में प्रियवचन बोलनवाली मित्र है। धर्मकार्य में पत्नी पिता की तरह हितैषिणी है और संकटकाल में माता के समान दुःख दूर करनेवाली है।
सन्तोषस्त्रिषु कर्त्तव्यः स्वदारे भोजने धने।
त्रिषु चैव न कर्त्तव्योऽध्ययने तपदानयोः।। = स्व-पत्नी, भोजन और धन इन तीनों में व्यक्ति को सन्तोष करना चाहिए। परन्तु अध्ययन, तप और दान में सन्तोष कभी नहीं करना चाहिए।
धनधान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणेषु च।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्।। = धन के लेन-देन में, धान्य के क्रय-विक्रय में, विद्या के संग्रह में, आहार और व्यवहार में लज्जा न करनेवाला मनुष्य सुखी होता है।
गुणेष्वेव हि कर्त्तव्यः प्रयत्नः पुरुषैः सदा।
गुणयुक्तो दरिद्रोऽपि नेश्वरैरगुणैः समः।। = मनुष्य को सदा दया, दाक्षिण्य आदि शुभगुणों की प्राप्ति में प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि गुणी दरिद्र व्यक्ति भी गुणहीन धनिकों से श्रेष्ठ है।
दाक्षिण्यं स्वजने दया परजने शाठ्यं सदा दुर्जने।
प्रितिः साधुजने स्मयः खलजने विद्वज्जने चार्जवम्।
शौर्यं शत्रुजने क्षमा गुरुजने नारिजने धृष्टता।
इत्थं ये पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः।। = अपनों के प्रति प्रसन्नता, परायों पर दया, दुर्जनों के प्रति दुष्टता, सज्जनों के प्रति प्रेम, दुष्टों के प्रति अकड़, विद्वानों के साथ सरलता, शत्रुओं के प्रति शूरता, बड़े लोगों के प्रति क्षमाभाव, स्त्रियों के प्रति विश्वास, इस प्रकार से उपरोक्त कलाओं याने व्यवहारों में जो लोग कुशल होते हैं, ऐसे लोगों के कारण ही पृथ्वी टिकी हुई है।
धर्मे तत्परता मुखे मधुरता दाने समुत्साहता।
मित्रेऽवञ्चकता गुरौ विनयता चित्तेऽति गम्भीरता।
आचारे शुचिता गुणे रसिकता शास्त्रेषु विज्ञानता।
रूपे सुन्दरता शिवे भजनता सत्स्वेव संदृष्यते।। धर्म में तत्परता, मुख में मधुरता, दान देने में अत्यन्त उत्साह का होना, मित्रों के प्रति निष्कपटता, गुरुओं के प्रति नम्रता, अन्तःकरण में समुद्र के समान गम्भीरता, आचार में पवित्रता, गुणों में रसिकता, शास्त्रों में विज्ञता, रूप में सुन्दरता और परमेश्वर की भक्ति ये सब बातें सज्जनों में ही दिखायी देती हैं।
दाने तपसि शौर्ये वा विज्ञाने विनये नये।
विस्मयो न हि कर्त्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा।। = दानशीलता, तपस्या, शूरवीरता, विज्ञान, विनम्रता और नीतिमत्ता में सबसे बड़ा होने का अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि पृथ्वी रत्नगर्भा है अर्थात् उपरोक्त गुणोंवाले इस धरा पर एक से बढ़कर एक मिल जाएंगे।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।। = जिसका मन दुःखों में उद्विग्न याने बेचैन नहीं होता, सुखों के प्रति लालसारहित जो है, जो राग-भय-क्रोध से मुक्त है, ऐसा स्थिर-बुद्धिवाला व्यक्ति मुनि कहाता है।
यः सर्वत्राऽनभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाऽशुभम्।
नाऽभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। = जो सब वस्तुओं के प्रति रागरहित है, शुभ को प्राप्त होके प्रसन्न तथा अशुभ को प्राप्त होके अप्रसन्न नहीं होता उसकी बुद्धि स्थिर स्थिर हो गई है (ऐसा मानना चाहिए)।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।। = कर्म करने में तेरा अधिकार है (अर्थात् कैसे कर्म करना ये तेरे हाथ में है)। कर्मों के फल पर तेरा अधिकार नहीं है (अर्थात् फलों का कब मिलना, कितना मिलना, कैसा मिलना इसका निर्णय तेरे हाथ में नहीं है)। इसलिए अमुक कर्म का अमुक फल मिले ऐसी कामना रखकर कर्म मत कर (अर्थात् निष्कामभाव से कर्म कर)। कर्म के त्याग के प्रति तेरी प्राीति न होवे (अर्थात् कर्म का त्याग नहीं करना है, अपितु फलाशा त्यागनी है)।
योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। = हे अर्जुन ! (फल के प्रति) आसक्ति छोड़कर योग में स्थित होकर कर्मों को कर। सफलता-असफलता दोनों ही अवस्थाओं में समता बनाए रख। मन की सम अवस्था को ही योग कहते हैं।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।। = सुनी हुई बातों के कारण चलायमान तेरी बुद्धि जब निश्चल हो जाएगी, तथा समाधि में टिक जाएगी तब तुझे योग (कर्मकौशल/समत्व) की प्राप्ति होगी।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।। = विद्या तथा विनय से युक्त ब्राह्मण में, गाय में, हाथी, कुत्ते, चाण्डाल में पण्डितों की भेदबुद्धि नहीं होती अर्थात् वे सबको समान देखते हैं।
समः रात्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्ण सुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः।। = जो शत्रु और मित्र में सम दृष्टि रखता है, मानापमान, शीतोष्ण, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में समता बनाए रखता है, जो निरासक्त (आसक्तिरहित) है (ऐसा भक्त मुझे प्रिय है)।
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।। = यदि तू (अर्जुन) योगाभ्यास करने में असमर्थ है, तो सब कर्म मुझे (ईश्वर) को लक्ष्य बनाकर कर। मेरे लिए (परमात्मा के लिए) कर्म करता हुआ भी तू सिद्धि को प्राप्त कर लेगा।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।। = इन्द्रिय के विषयों में वैराग्य का होना, अहंकार-शून्यता, संसार में जन्म-मृत्यु, बुढापा, बीमारी और दुःखों को देखना (यही ज्ञान कहाता है)।
आसक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।। = अनासक्ति, पुत्र-पत्नी-गृह आदि में मोह का न होना, इष्ट-अनिष्ट अर्थात् प्रियाप्रिय में चित्त की समता बनाए रखना (यही ज्ञान है)।
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।। = अनन्य भाव से मुझ में एकनिष्ठ भक्ति का होना, एकान्त स्थान का सेवन करना, जन-समुदाय में अरुचि अर्थात् किसी व्यक्तिविशेष के प्रति लगाव का न होना (यही ज्ञान कहाता है)।
पतिव्रता पतिप्राणा पत्युःप्रियहिते रताः।
यस्य स्यादृशी भार्या धन्य स पुरुषो भुवि।। = जिसे पतिव्रता याने पति को प्राणवत् चाहनेवाली, पति के हित में सदा तत्पर रहनेवाली पत्नी प्राप्त हो, वह पुरुष पृथ्वी पर धन्य है।
लौकिके कर्मणि रतः पशुनां परिपालकः।
वाणिज्यकृषिकर्ता यः स विप्रो वैश्य उच्यते।। = जो द्विज लौकिक कर्मों में संलग्न हो, पशु पालता हो, व्यापार और खेती करता हो वह वैश्य कहाता है।
वापी-कूप-तडागानामाराम-सुर-वेश्मनाम्।
उच्छेदने निराऽऽशङ्कः स विप्रो म्लेच्छ उच्यते।। = जो द्विज बावड़ी, कुंआ, तालाब, वाटिका, देवालयों के तोड़ने-फोड़ने में नीडर हो, वह म्लेच्छ कहाता है।
वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रता, विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादाद् भयम्।
भक्तिः शूलिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खले, एते येषु वसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः।। = सज्जनों के संग की इच्छा, दूसरों के गुणों में अनुराग, गुरुजनों के प्रति विनम्रता, विद्या का व्यसन, अपनी ही स्त्री से रतिक्रीडा, लोक में बदनामी से भय, परमात्मा की भक्ति, मन और इन्द्रियों को वश में रखने की शक्ति और दुष्टों के संसर्ग (संगति) का त्याग ये निर्मल गुण जिन मनुष्यों में रहते हैं ऐसे महापुरुष को हमारा प्रणाम है।
अकरुणत्वमकारणविग्रहः परधने परयोषिति च स्पृहा।
सुजनबन्धुजनेष्वसहिष्णुता प्रकृति सिद्धमिदं हि दुरात्मनाम्।। = निर्दयता याने दया का अभाव, बिना कारण लड़ाई-झगडा करना, दूसरे के धन और स्त्री को पाने की इच्छा करना, सज्जनों और सगे सम्बन्धियों के साथ डाह रखना ये लक्षण दुर्जनों में स्वभाव से ही पाए जाते हैं।
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृति सिद्धमिदं हि महात्मनाम्।। = विपत्ति में धैर्य, समृद्धि में क्षमाशीलता, सभा में वाक्चातुर्य, युद्ध में पराक्रम, यश-प्राप्ति में अभिलाशा, वेदादि शास्त्रों के अध्ययन का व्यसन ये बातें महापुरुषों में स्वभाव से ही होती हैं।
पद्माकरं दिनकरो विकचं करोति, चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम्।
नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति, सन्तः स्वयं परहितेषु कृताभियोगाः।। = सूर्य बिना याचना किए ही कमल-समूह को विकसित करता है, चन्द्रमा भी बिना प्रार्थना के स्वयं ही कुमुदों को प्रफुल्लित करता है, बादल भी बिना मांगे ही जल बरसाता है, इसी प्रकार सज्जन भी अपने-आप ही दूसरों की भलाई करना अपना कर्त्तव्य समझते हैं।
यस्तात् न क्रुध्यति सर्वकालं भृत्यस्य भक्तस्य हिते रतस्य।
तस्मिन् भृत्या भर्तरि विश्वसन्ति न चैनमापत्सु परित्यजन्ति।। = हे तात ! स्वामी के हित में लगे हुए भक्त सेवक के प्रति जो कदापि क्रोध नहीं करता, उस स्वामी के प्रति सेवक विश्वास करते हैं और आपत्ति में भी उसका परित्याग नहीं करते।
कान्तारे वनदुर्गेषु कृच्छ्रास्वापत्सु सम्भ्रमे।
उद्यतेषु च शस्त्रेषु नास्ति सत्त्ववतां भयम्।। = जङ्गलों में, वनों के दुर्गम स्थानों में कठिन आपत्तियों में, युद्धादि की हलचल में और मारने के लिए शस्त्रों के उठाए जाने पर भी मनोबल से युक्त मनुष्यों को भय नहीं होता।
अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः।। = बिना बुलाए जो पुरुष सभा आदि में प्रविष्ट होता है और बिना पूछे बहुत बोलता है तथा विश्वास के अयोग्य पुरुषों में विश्वास करता है, वह जड़बुद्धि व्यक्ति मनुष्यों में घटिया है।
आर्यकर्मणि रज्यन्ते भूतिकर्माणि कुर्वते।
हितं च नाऽभ्यसूयन्ति पण्डिता भरतर्षभ।। = हे भरतकुल में श्रेष्ठ धृतराष्ट्र ! जो व्यक्ति आर्यों के कर्मों में अनुराग रखते हैं, ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले कर्मों को ही करते हैं और कल्याणकारक की कभी असूया, निन्दा नहीं करते, वे ही पण्डित हैं।
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।। = रहस्यपूर्ण आध्यात्मिक उपदेश उसी महात्मा को ज्ञात होते हैं, जिसकी परमदेव (परमात्मा) में तथा अपने गुरु में परम भक्ति होती है।



संस्कृतं वद आधुनिको भव।
वेदान् पठ वैज्ञानिको भव।।


इति

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