महीध्रादुत्तुंगादवनिमवनेश्चापिजलधिम् ।
अधोSधो गंगेयंपदमुपगतास्तोयमथवा
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपात: शतमुख: ।।10
व्याख्या -
इयं भागीरथी स्वर्गात् भगवत: शिवस्य शिरसि पतिता । शिरात् पर्वते पतिता । उच्च-पर्वतात् पृथिव्यां पतिता । पृथिव्या: पुन: सागरे पतिता ।
एवं विधा गंगा उच्चस्थानात् यथा अधोध: पतिता तथैव बुद्धिभ्रष्टानामपि पतनं सर्वथा भवति एव । इत्युक्ते बुद्धिभ्रष्टस्य पतनस्य शताधिक मार्गा: भवन्ति ।
हिन्दी -
स्वर्ग से गंगा भगवान् शिव के सिर पर गिरी, वहां से पर्वत पर, पर्वत से धरती पर और धरती से सागर में गिरती हैं । ठीक इसी प्रकार बुद्धि से भ्रष्ट लोगों का पतन सैकडों तरह से होता है अर्थात् बुद्धिभ्रष्ट लोगों के पतन के सैकडों मार्ग हो जाते हैं ।
छन्द - शिखरिणी छन्द: ।
छन्दलक्षणम् - रसै: रुद्रैश्छिन्ना यमनसभलाग: शिखरिणी ।
हिन्दी छन्दानुवाद -
स्वर्ग से गिरती शिव के शीश, शीश से गिरे महीधर पर
गिरे धरती पर क्षितिधर से, अवनि से जा मिलती सागर ।
उच्चतम से गिरती जाती निम्नतम तक जैसे सुरसरि
सैकडों बार पतित होता, बुद्धि से भ्रष्ट हो चुका नर ।।
इति
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