रामो द्विर्नाभिभाषते

रामो द्विर्नाभिभाषते –


अयोध्या के महाराज दशरथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को राज्यभार सौंपने के लिये उनके राज्याभिषेक का विचार किया । कुलगुरु वशिष्ठ जी ने इस बात का अनुमोदन किया । कुलगुरु ने श्रीराम को बुलाकर उन्हें सभी प्रकार के व्रत-संयम का निर्देश किया यतोहि अगले ही दिन पुष्य नक्षत्र में कर्क लग्न में श्रीराम का युवराज पद पर अभिषेक होना था ।

अभिषेक की सारी सामग्रियाँ उपस्थित हो चुकी थीं । पूरे राज्य में खुशी की लहर दौड़ गई थी । राम सभी के प्राणप्रिय थे । जिसने भी सुना वह अगले दिन की प्रतीक्षा में लग गया ।

महारानी कैकई की दासी कुबड़ी मंथरा ने रानी को समाचार सुनाया । रानी बड़ी हर्षित हुईं । उसे पारितोषिक दिया । कुबड़ी अन्दर से जली हुई थी । उसे राम के यौवराज्याभिषेक की सूचना से अपार कष्ट था । उसने महारानी की दी हुई माला भूमि पर फेंक दी और उसे धिक्कारना और बरगलाना शुरू किया ।

कुछ देर तक महारानी राम से प्रेम प्रदर्शित करती रहीं किन्तु शीघ्र ही मन के अन्दर की अव्यक्त कामना उन पर हावी हो गई । उन्हें मन्थरा की बात जँच गई । मन्थरा ने महाराज के द्वारा देवासुर संग्राम में दिये दो वरों की याद दिलाई और इसी समय माँग लेने के लिये कहा । मंथरा ने ही भरत का राज्याभिषेक और राम को चौदह वर्षों का वनवास सुझाया । रानी को यह बात बहुत रुच गई ।

सायं के समय महाराज प्रसन्न मन से कैकई के महल में पधारते हैं । उनके मन में उत्साह है कि रानी को श्रीराम के राज्याभिषेक की बात बताऊँगा तो रानी कितनी खुश हो जाएगी । पर महल में प्रवेश करने पर पता चला रानी तो कोपभवन में हैं ।

भला ऐसी क्या बात हो गई देवि ǃ किसने तुम्हारा अपराध कर दिया । बताओं किसके दिन लद गये । किस राजा को रंक बना दूँ‚ कहो किस भिखारी को राजा बना दूॅं । तुम कहो तो तुम्हारे आदेश पर अमर देवताओं को भी मार दूँ । अपनी अप्रसन्नता का कारण कहो तो ।

रानी ने समय देख महाराजा को दोनों वरों की याद दिलाई और पुनः शपथ दिलाया उन वरों को पूरा करने का । महाराज आने वाली अनहोनी से अपरिचित पुनः वचन दे बैठे ।

फिर शुरू हुआ महारानी का ताण्डव । पहले वर से उन्होंने भरत के लिये अयोध्या का राज्य माँग लिया । जबतक कि महाराज कुछ समझ पाते तबतक उनके ऊपर वज्र सा गिराते हुए दूसरे वर के रूप में श्रीराम के लिये १४ वर्षों का वनवास माँग लिया ।

महाराज पृथ्वी पर गिर पड़े । रानी से अनुनय किया । कहा – भरत को आज ही बुला कर राज्य दे देता हूँ । पर राम को वनवास की कल्पना भी नहीं कर सकता । भला राम ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है । वो तो पशु–पक्षियों को भी कष्ट नहीं देता । तुमको अपनी माँ कौशल्या से भी अधिक प्रेम करता है । तुम्हारी उतनी सेवा स्वयं भरत नहीं करता जितनी कि राम । फिर ऐसा क्या हो गया महारानी । अपना ये वर वापस लो ।

महाराज का अनुनय रानी के कानों तक पहुँचा ही नहीं । वे श्रीराम को कल ही वन भेजने पर तुली थीं । उसने कहा – यदि कल राम वन नहीं जाते तो मैं अपने प्राण छोड़ दूँगी ।

प्रातःकाल हो चली थी । वशिष्ठ सहित सभी शुभेच्छु अभिषेकसम्भार लेकर महल के द्वार पर उपस्थित थे । सुमन्त्र ने जाकर महाराज को प्रणाम किया और सभी के आगमन का निवेदन किया । महाराज अधिक न बोल सके । बस इतना कहा – मेरे राम को बुला लाओ ।

सुमन्त्र कुछ समझ नहीं सके । बस श्रीराम को बुलाने चले । श्रीराम के भवन में पहुँच सुमन्त्र ने महाराज की आज्ञा निवेदित की । श्रीराम ने पिता के बुलावे पर तुरन्त ही जाने की तैयारी कर ली ।

सुमन्त्र के साथ महाराज दशरथ के पास पहुँचने पर श्रीराम ने पिता को विषण्णवदन देखा तो महारानी से पूॅंछने लगे –

कश्चिन्मया नापराद्धमज्ञानाद् येन मे पिता
कुपितः...............
माता ǃ क्या मेरे द्वारा कोई अपराध बन गया है जो आज मेरे पिता मुझे देखकर न तो प्रसन्न हुए न ही मुझसे बात कर रहे हैं ।

अतोषयन् महाराजमकुर्वन् वा पितुर्वचः
मुहूर्तमपि नेच्छेयं जीवितुं कुपिते नृपे ।।
पिता महाराज को अप्रसन्न करके अथवा उनकी आज्ञा का उल्लंघन करके मैं मूहूर्तभर भी जीवित रहना नहीं चाहता ।

कैकई ने कपट को छिपाते हुए कहा – नहीं राम ǃ तुमसे कोई भूल नहीं हुई है । तुम्हारे पिता तुमसे कुछ कहना चाहते हैं किन्तु तुम्हारे भय से कह नहीं पा रहे हैं । यदि वे तुमसे कुछ माँगें तो क्या तुम उन्हें वो दोगे‚ चाहे वह शुभ हो या अशुभ ?

कैकई की बात सुनकर राम को बड़ा कष्ट हुआ । उन्होंने कहा – माता तुम ऐसा कैसे कह सकती हो । मैं पिता के कहने पर आग में कूद सकता हूँ । तीव्र विषका भी भक्षण कर सकता हूँ । समुद्र में भी कूद सकता हूँ ।

अहो धिड्. ǃ नार्हसे देवि वक्तुं मामीदृशं वचः
अहं हि वचनाद् राज्ञः पतेयमपि पावके ।।
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे ।

तो कहिये पिता का क्या प्रिय करना है । जो भी हो मैं करूँगा यह मेरा वचन है । माता ǃ राम कभी दोहरी बात नहीं कहता ।

तद् ब्रूहि वचनं देवि राज्ञो यदभिकांक्षितम्
करिष्ये पतिजाने च रामो द्विर्नाभिभाषते ।।

आगे की कथा आप सभी को पता ही है किन्तु इस संवाद को सुनकर⁄पढ़कर यह पता लगता है कि श्रीराम जैसा पितृभक्त‚ मातृभक्त और प्रजावत्सल किसी भी काल में कोई नहीं हुआ । वे हर काल में सबसे महान् मानव हैं‚ मानव नहीं महामानव हैं‚ महामानव भी नहीं वे मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् हैं क्यूँकि मनुष्य में इस तरह का समार्थ्य हो ही नहीं सकता ।

बोलो मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम की जय
 
सन्दर्भ : वाल्मीकीय रामायण / अयोध्याकाण्ड / १८वाँ सर्ग


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