प्राचीन काल में (लगभग दूसरी शताब्दी ईसापूर्व) दक्षिण भारत में महिलारोप्य नामक एक नगर था । उस राज्य के राजा अमरशक्ति बड़े प्रतापी‚ जनसेवक तथा विद्वानों का आदर करने वाले थे । राजा अमरशक्ति के तीन पुत्र थे किन्तु तीनों का शास्त्राध्ययन से द्वेष था इसलिये वे तीनों विद्याविहीन मूर्ख थे ।
अपने पुत्रों की अनध्ययनशीलता से राजा अत्यन्त दुःखी थे । उन्होंने अपने पुत्रों को पढ़ाने का सारा प्रयत्न कर लिया था पर सफल नहीं हो सके । इस बात से राजा निरन्तर चिन्तित रहते थे । भला विद्या और ज्ञान के अभाव में वो राज्य को उत्तराधिकारी कैसे दे पाते ।
बहुत सोच-विचार के बाद राजा ने एक उपाय निकाला । उन्होंने अपने राज्य में घोषणा करा दी कि जो भी विद्वान् उनके तीनों पुत्रों को शास्त्राध्ययन कराएगा तथा उन्हें राजनीति में निपुण बना देगा उसे वे अपना आधा राज्य दे देंगे ।
आधा राज्य पाने की लालसा और लालच दूरदराज के राज्यों के विद्वानों को भी लुभाने लगी । पूरे देश में ये बात आग की तरह फैल चुकी थी जिसके कारण दूर-दराज से विद्वान् अपनी विद्वता का दम्भ लिये राजा के पुत्रों को पढाने आने लगे ।
सभी ने बारी-बारी से राजा के पुत्रों को पढाने-सिखाने का भरपूर प्रयत्न किया किन्तु राजा के पुत्र किसी भी तरीके‚ कुछ भी सीखने को तैयार न थे । अधिकतर विद्वानों को राजपुत्रों ने पीड़ित-प्रताड़ित करके भगा दिया और अनेक विद्वान् उनकी मूर्खता और धृष्टता देखकर स्वयं भाग चले ।
यह क्रम सालों तक चला पर राजा के पुत्रों को शास्त्रज्ञान करा सकने में कोई समर्थ नहीं हुआ । अब राजा भी हार मानने लगा था । वह अपने भाग्य को कोसते हुए सुधार की आशा को छोड़ चुका था ।
एक दिन द्वारपाल ने राजा को सूचना दी‚ अपने राज्य का एक बहुत ही वृद्ध व्यक्ति आपके दर्शनों की इच्छा से उपस्थित हुआ है । आपसे अभी मिलना चाहता है । वह कह रहा है कि वह आपके पुत्रों को शिक्षित बना देगा ।
यद्यपि राजा सारी आशा खो चुका था फिर भी उसने मिल लेने में कोई हानि न समझी । उसने आदर के साथ वृद्ध विद्वान् को बुलाकर बैठाया । राजा ने वृद्ध को सारी बात बताई - कैसे और कितने विद्वान् हार मानकर जा चुके हैं ।
वृद्ध विद्वान् ने कहा - राजन ǃ मैं आपके बच्चों को शिक्षित कर दूँगा । पर मेरे तरीके में किसी भी तरह का कोई भी रोकटोक नहीं होना चाहिए ।
राजा ने सहमति प्रदान करते हुए कहा - यदि आप मेरे बच्चों को राजनीति सिखा देंगे तो आधे राज्य के साथ आप जो चाहें वह देने को तैयार हूँ ।
वृद्ध विद्वान् ने कहा - राजन् ǃ मै विद्याविक्रेता नहीं अपितु शिक्षक हूँ । मैं अपनी पूरी अवस्था जी चुका हूँ । यह मेरे आराम के दिन हैं किन्तु आपकी पीड़ा समझ कर मैं चला आया । मुझे न तो कोई धन चाहिए न ही राज्य । मैं आपके बच्चों को निःशुल्क शिक्षित करूँगा । राजा कुछ कह न सके बस कृतज्ञ आखों से वृद्ध विद्वान् को देखते रहे ।
अगले दिन से ही बच्चों की शिक्षा शुरू हुई । वृद्ध शिक्षक को देखकर बच्चों के मन की शरारत कई गुणा बढ गई । उन्हें लगा जब हमने बड़े-बड़े शूरमाओं को भगा दिया तो ये बुढऊ कितने दिन टिकेंगे ।
वृद्ध विद्वान् उनकी उद्दण्डता से परिचित थे । उन्होंने शिक्षा का तरीका बदल दिया । उन्होंने सभी बालकों को पास बैठाया और कहा - वत्स ǃ मैं तुम लोगों को पढाने नहीं आया हूँ । वस्तुतः मैं पढाना जानता ही नहीं । मैं तो एक कहानीकार हूँ । मैं तुम लोगों को प्रतिदिन कहानियाँ सुनाया करूँगा‚ तुम लोग भी मजे में रहना और मेरा बुढापा भी आराम से कट जाएगा ।
राजपुत्रों को ये बात जँच गई । कहानियाँ भला किसे प्रिय नहीं । अब तीनों ही राजपुत्र नियमित उन वृद्ध विद्वान् से कहानी सुनने लगे । वृद्ध विद्वान् ने कहानियों का ऐसा क्रम बनाया कि उसी बहाने उन राजपुत्रों को पूरी राजनीति की शिक्षा दे डाली ।
कई महीनों तक चले इस उपक्रम के बाद एक दिन वृद्ध विद्वान् ने राजा से कहा - राजन् ǃ मैने अपना वचन पूरा किया । आपके बालक अब राजनीति के पंडित हैं । आप इनसे मनचाहा प्रश्न पूँछ सकते हैं ।
राजा ने अपने पुत्रों से विविध प्रकार के प्रश्न पूँछे । कहानी में उन सभी प्रश्नों को घटनाओं के रूप में सुन चुकने के कारण राजपुत्र बिना विलम्भ ही प्रश्नों के उत्तर देने लगे । राजा ने सारे प्रश्नों के यथोचित उत्तर प्राप्तकर वृद्ध विद्वान् के चरण पकड़ लिये ।
राजा ने कृतज्ञता पूर्वक अनुनय किया । हे ब्रह्मन् ǃ आप मुझसे कुछ तो ले लीजिये । अन्यथा मेरे मन को संतोष नहीं होगा ।
विद्वान् ने कहा - हे राजन् ǃ मेरी अवस्था हो चुकी । मुझे कुछ नहीं चाहिये । फिर भी आपकी मनःतुष्टि के लिये माँगता हूँ । मैने आपके पुत्रों को जो कहानियाँ सुनाई हैं उन्हें संरक्षित करा लीजिये ताकि भविष्य में किसी अन्य व्यक्ति के सामने ऐसी समस्या उपस्थित न हो । मैने अपनी कहानियों के ही माध्यम से आपके पुत्रों को राजनीति के पाँचों तन्त्रों की शिक्षा दी है । आप इस पुस्तक का नाम पंचतन्त्र रखियेगा । बस यही मेरी गुरुदक्षिणा समझिये ।
राजा ने पूरी कहानी संग्रह को एकत्रित कराया । वृद्ध विद्वान् ने जिस क्रम से जितनी कहानियों को जितने तन्त्रों में बाँटा था उसी क्रम से सभी कहानियों को अध्यायों में विभाजित किया और प्रकाशित कराकर पूरे राज्य में प्रसार कराया ।
क्या आप जानते हैं उस पुस्तक का नाम और उसके कर्ता वृद्ध विद्वान् का नाम ?
वे विद्वान् थे पण्डित विष्णु शर्मा और उनकी वह अमर कृति आज संसार में पंचतन्त्र के नाम से विख्यात है ।
आशा है आपको हमारे देश की इस महान् विभूति के बारे में जानकर अच्छा लगा होगा ।
अपने पुत्रों की अनध्ययनशीलता से राजा अत्यन्त दुःखी थे । उन्होंने अपने पुत्रों को पढ़ाने का सारा प्रयत्न कर लिया था पर सफल नहीं हो सके । इस बात से राजा निरन्तर चिन्तित रहते थे । भला विद्या और ज्ञान के अभाव में वो राज्य को उत्तराधिकारी कैसे दे पाते ।
बहुत सोच-विचार के बाद राजा ने एक उपाय निकाला । उन्होंने अपने राज्य में घोषणा करा दी कि जो भी विद्वान् उनके तीनों पुत्रों को शास्त्राध्ययन कराएगा तथा उन्हें राजनीति में निपुण बना देगा उसे वे अपना आधा राज्य दे देंगे ।
आधा राज्य पाने की लालसा और लालच दूरदराज के राज्यों के विद्वानों को भी लुभाने लगी । पूरे देश में ये बात आग की तरह फैल चुकी थी जिसके कारण दूर-दराज से विद्वान् अपनी विद्वता का दम्भ लिये राजा के पुत्रों को पढाने आने लगे ।
सभी ने बारी-बारी से राजा के पुत्रों को पढाने-सिखाने का भरपूर प्रयत्न किया किन्तु राजा के पुत्र किसी भी तरीके‚ कुछ भी सीखने को तैयार न थे । अधिकतर विद्वानों को राजपुत्रों ने पीड़ित-प्रताड़ित करके भगा दिया और अनेक विद्वान् उनकी मूर्खता और धृष्टता देखकर स्वयं भाग चले ।
यह क्रम सालों तक चला पर राजा के पुत्रों को शास्त्रज्ञान करा सकने में कोई समर्थ नहीं हुआ । अब राजा भी हार मानने लगा था । वह अपने भाग्य को कोसते हुए सुधार की आशा को छोड़ चुका था ।
एक दिन द्वारपाल ने राजा को सूचना दी‚ अपने राज्य का एक बहुत ही वृद्ध व्यक्ति आपके दर्शनों की इच्छा से उपस्थित हुआ है । आपसे अभी मिलना चाहता है । वह कह रहा है कि वह आपके पुत्रों को शिक्षित बना देगा ।
यद्यपि राजा सारी आशा खो चुका था फिर भी उसने मिल लेने में कोई हानि न समझी । उसने आदर के साथ वृद्ध विद्वान् को बुलाकर बैठाया । राजा ने वृद्ध को सारी बात बताई - कैसे और कितने विद्वान् हार मानकर जा चुके हैं ।
वृद्ध विद्वान् ने कहा - राजन ǃ मैं आपके बच्चों को शिक्षित कर दूँगा । पर मेरे तरीके में किसी भी तरह का कोई भी रोकटोक नहीं होना चाहिए ।
राजा ने सहमति प्रदान करते हुए कहा - यदि आप मेरे बच्चों को राजनीति सिखा देंगे तो आधे राज्य के साथ आप जो चाहें वह देने को तैयार हूँ ।
वृद्ध विद्वान् ने कहा - राजन् ǃ मै विद्याविक्रेता नहीं अपितु शिक्षक हूँ । मैं अपनी पूरी अवस्था जी चुका हूँ । यह मेरे आराम के दिन हैं किन्तु आपकी पीड़ा समझ कर मैं चला आया । मुझे न तो कोई धन चाहिए न ही राज्य । मैं आपके बच्चों को निःशुल्क शिक्षित करूँगा । राजा कुछ कह न सके बस कृतज्ञ आखों से वृद्ध विद्वान् को देखते रहे ।
अगले दिन से ही बच्चों की शिक्षा शुरू हुई । वृद्ध शिक्षक को देखकर बच्चों के मन की शरारत कई गुणा बढ गई । उन्हें लगा जब हमने बड़े-बड़े शूरमाओं को भगा दिया तो ये बुढऊ कितने दिन टिकेंगे ।
वृद्ध विद्वान् उनकी उद्दण्डता से परिचित थे । उन्होंने शिक्षा का तरीका बदल दिया । उन्होंने सभी बालकों को पास बैठाया और कहा - वत्स ǃ मैं तुम लोगों को पढाने नहीं आया हूँ । वस्तुतः मैं पढाना जानता ही नहीं । मैं तो एक कहानीकार हूँ । मैं तुम लोगों को प्रतिदिन कहानियाँ सुनाया करूँगा‚ तुम लोग भी मजे में रहना और मेरा बुढापा भी आराम से कट जाएगा ।
राजपुत्रों को ये बात जँच गई । कहानियाँ भला किसे प्रिय नहीं । अब तीनों ही राजपुत्र नियमित उन वृद्ध विद्वान् से कहानी सुनने लगे । वृद्ध विद्वान् ने कहानियों का ऐसा क्रम बनाया कि उसी बहाने उन राजपुत्रों को पूरी राजनीति की शिक्षा दे डाली ।
कई महीनों तक चले इस उपक्रम के बाद एक दिन वृद्ध विद्वान् ने राजा से कहा - राजन् ǃ मैने अपना वचन पूरा किया । आपके बालक अब राजनीति के पंडित हैं । आप इनसे मनचाहा प्रश्न पूँछ सकते हैं ।
राजा ने अपने पुत्रों से विविध प्रकार के प्रश्न पूँछे । कहानी में उन सभी प्रश्नों को घटनाओं के रूप में सुन चुकने के कारण राजपुत्र बिना विलम्भ ही प्रश्नों के उत्तर देने लगे । राजा ने सारे प्रश्नों के यथोचित उत्तर प्राप्तकर वृद्ध विद्वान् के चरण पकड़ लिये ।
राजा ने कृतज्ञता पूर्वक अनुनय किया । हे ब्रह्मन् ǃ आप मुझसे कुछ तो ले लीजिये । अन्यथा मेरे मन को संतोष नहीं होगा ।
विद्वान् ने कहा - हे राजन् ǃ मेरी अवस्था हो चुकी । मुझे कुछ नहीं चाहिये । फिर भी आपकी मनःतुष्टि के लिये माँगता हूँ । मैने आपके पुत्रों को जो कहानियाँ सुनाई हैं उन्हें संरक्षित करा लीजिये ताकि भविष्य में किसी अन्य व्यक्ति के सामने ऐसी समस्या उपस्थित न हो । मैने अपनी कहानियों के ही माध्यम से आपके पुत्रों को राजनीति के पाँचों तन्त्रों की शिक्षा दी है । आप इस पुस्तक का नाम पंचतन्त्र रखियेगा । बस यही मेरी गुरुदक्षिणा समझिये ।
राजा ने पूरी कहानी संग्रह को एकत्रित कराया । वृद्ध विद्वान् ने जिस क्रम से जितनी कहानियों को जितने तन्त्रों में बाँटा था उसी क्रम से सभी कहानियों को अध्यायों में विभाजित किया और प्रकाशित कराकर पूरे राज्य में प्रसार कराया ।
क्या आप जानते हैं उस पुस्तक का नाम और उसके कर्ता वृद्ध विद्वान् का नाम ?
वे विद्वान् थे पण्डित विष्णु शर्मा और उनकी वह अमर कृति आज संसार में पंचतन्त्र के नाम से विख्यात है ।
आशा है आपको हमारे देश की इस महान् विभूति के बारे में जानकर अच्छा लगा होगा ।
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