गोपीजारद्वयकथा
द्वारवती नगरी में किसी ग्वाले की बहू बड़ी कुलटा थी । वह एक साथ ही अपने नगर के दण्डनायक (कोतवाल) और उसके पुत्र‚ दोनों के साथ रमण करती थी ।
एक दिन जब ग्वाला कहीं गया हुआ था तब दण्डनायक का पुत्र उससे मिलने आया । अभी कुछ ही समय बीता था कि इतने में दण्डनायक भी उसके घर पर आ धमका । दण्डनायक को आता देख गोपी ने दण्डनायक के पुत्र को अपने घर की अन्नभण्डारण की कोठरी में छुपा दिया; और स्वयं निर्भय होकर दण्डनायक से प्रेम प्रदर्शित करने लगी ।
दुर्भाग्य से दण्डनायक के आने के कुछ ही समय के बाद गोपी का पति भी गोशाला से घर आ गया । अपने पति को आता देखकर गोपी घबरा गई । वह दण्डनायक को घर में छुपा नहीं सकती थी‚ क्यूँकि उसका पुत्र पहले से ही घर में छुपा हुआ था ।
अचानक से गोपी को एक युक्ति सूझी । उसने दण्डनायक से कहा - हे दण्डनायक ǃ आप शीघ्र ही लाठी हाथ में लेकर उसे पटकते हुए क्रोध की मुद्रा में यहाँ से बाहर निकलिये और अपने घर चले जाइये ।
यह सुनकर दण्डनायक क्रोध से लाठी पटकता हुआ‚ बड़बड़ाता हुआ शीघ्र ही वहाँ से चला गया । ग्वाले ने घर में प्रवेश करते ही गोपी से पूँछा - यह दण्डनायक यहाँ क्यों आया था और यह इतने क्रोध में यहाँ से क्यूँ गया ॽ
गोपी ने कहा - स्वामी ǃ यह अपने पुत्र पर किसी कारण से क्रोधित हो गया था; इसीलिये इसका पुत्र इसके डर से भागकर हमारे यहाँ आ गया । मैने इससे बचाने के लिये उसे अन्न की कोठरी में छिपा दिया । जब इसने उसको सभी तरफ ढूँढ लिया और फिर भी नहीं पा सका तो क्रुद्ध होकर‚ बड़बड़ाता हुआ यहाँ से चला गया ।
ऐसा कहकर गोपी ने दण्डनायक के पुत्र को कोठरी से बाहर निकाला और उसे झूठे ही निश्चिन्त करते हुए कहा - निर्भय होकर जाओ ǃ तुम्हारे पिता अब यहाँ से जा चुके हैं । इतना सुनकर दण्डनायक का पुत्र राहत की साँस लेता हुआ वहाँ से चला गया ।
इस प्रकार बड़ी ही चतुराई से गोपी ने अपने पति से अपने दुश्चारित्र्य की बात छिपाकर अपनी‚ दण्डनायक और उसके पुत्र सभी के प्राणों की रक्षा कर ली ।
किसी ने सच ही कहा है - पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का भोजन दूना‚ बुद्धि चौगुनी‚ परिश्रम छः गुना और काम आठ गुना अधिक होता है ।
आहारो द्विगुणः स्त्रीणां‚ बुद्धिस्तासां चतुर्गुणा ।
षड्गुणो व्यवसायश्च‚ कामश्चाष्टगुणः स्मृतः ।।
इसीलिये कहते हैं - कार्य (विषम परिस्थिति) आ जाने पर जिसकी बुद्धि नष्ट नहीं होती है‚ वही कठिनाइयों से पार होता है ।
उत्पन्नेष्वपि कार्येषु मतिर्यस्य न हीयते ।
स निस्तरति दुर्गाणि‚ गोपी जारद्वयं यथा ।।
हितोपदेश
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