पाठ: (32) कर्मवाच्य (पॅसिव्ह वॉईस)


(कर्म को प्रधान रूप से कहने के लिए कर्मवाच्य का प्रयोग होता है। कर्मवाच्य में कर्ता में तृतीया, कर्म में प्रथमा तथा क्रिया कर्म के अनुसार चलती है। सकर्मक धातुओं का ही कर्मवाच्य में प्रयोग होता है तथा धातु से आत्मनेपद होता है।)
रामः (कर्ता) रोटिकां (कर्म) खादति (क्रिया) = राम रोटी खा रहा है। (कतृवाच्य प्रयोग)
रामेण रोटिका खाद्यते = राम के द्वारा रोटी खाई जाती है।
अहं पाठं लिखामि = मैं पाठ लिख रही हूं।
मया पाठः लिख्यते = मेरे द्वारा पाठ लिखा जा रहा है।
आत्मदर्शी प्रातः दुग्धम् अपिबत् = आत्मदर्शी ने सुबह दूध पीया।
आत्मदर्शिना प्रातः दुग्धम् अपीयत = आत्मदर्शी के द्वारा सुबह दूध पीया गया।
छात्राः सर्वा श्वः यज्ञार्थं नगरं गमिष्यन्ति = सभी छात्राएं कल यज्ञ के लिए शहर जाएंगी।
छात्राभिः सर्वाभिः श्वः यज्ञार्थं नगरं गमिष्यते = सभी छात्राओं के द्वारा यज्ञ के लिए कल शहर जाया जाएगा।
कृषकः हलेन क्षेत्रम् कर्षति = किसान हल से भूमि जोतता है।
कृषकेन हलेन क्षेत्रम् कृष्यते = किसान के द्वारा हल से भूमि जोती जा रही है।
श्रेष्ठी निर्धनेभ्यः कम्बलानि ददाति = श्रेष्ठी गरीबों को कम्बल दे रहा है।
श्रेष्ठिना निर्धनेभ्यः कम्बलानि दीयन्ते = श्रेष्ठी के द्वारा गरीबों को कम्बल दिए जा रहे हैं।
प्रत्यूषे सर्वे कोष्णं जलं पिबेयुः = जल्दी सुबह सभी को गुनगुना पानी पीना चाहिए।
प्रत्यूषे सर्वैः कोष्णं जलं पीयेत = सुबह सभी के द्वारा गुनगुना पानी पीया जाना चाहिए।
रात्रौ चिरेण भोजनं मा कुरु = रात को देर से भोजन मत कर।
रात्रौ चिरेण भोजनं मा क्रियस्व = रात को देर से भोजन नहीं किया जाना चाहिए।
वातप्रकोपे चमसपूरं मेथिकां जले विक्लिद्य प्रातः रिक्तोदरं भुङ्क्ताम् = वायु प्रकुपित होने पर चम्मचभर मेथी के दाने पानी में भिगो कर सुबह खाली पेट खाओ।
वातप्रकोपे चमसपूरं मेथिका जले विक्लिद्य प्रातः रिक्तोदरं भुज्यताम् = वायु प्रकुपित होने पर चम्मचभर मेथी के दाने पानी में भिगो कर सुबह खाली पेट खाया जाना चाहिए।
कोष्ठबद्धतायां प्रातः प्रतिदिनं चतुःपञ्चचषकपरिमितं कोष्णं जलं पिबतु = कब्जियत में सुबह प्रतिदिन चार-पांच गिलास गुनगुना पानी पीयो।
कोष्ठबद्धतायां प्रातः प्रतिदिनं चतुःपञ्चचषकपरिमितं कोष्णं जलं पीयताम् = कब्ज में सुबह प्रतिदिन चार-पांच ग्लास गुनगुना पानी पीया जाए।
वेदशास्त्राध्ययनेन धर्मं जानीत = वेद व वैदिक शास्त्रों के अध्ययन से धर्म को जानना चाहिए।
वेदशास्त्राध्ययनेन धर्मः ज्ञायेत = वेद व वैदिक शास्त्रों के अध्ययन से धर्म जाना जाए।
वीथ्यां गच्छन् चायपानं कुर्वन्तं पुत्रं पिता अद्राक्षीत् = बाजार में जाते हुए पिता ने चाय पी रहे पुत्र को देखा।
वीथ्यां गच्छता चायपानं कुर्वाणः पुत्रः पित्रा अदर्शि = बाजार में जाते हुए पिता के द्वारा चाय पीता हुआ पुत्र देखा गया।
नर्तकी अद्य भरतनाट्यम् अकार्षीत् = नर्तकी ने आज भरतनाट्यम् किया।
नर्तक्या अद्य भरतनाट्यम् अकारि = नर्तकी के द्वारा आज भरतनाट्यम् किया गया।
छात्रा शोधप्रबन्धनम् अलेखीत् = छात्रा ने शोधप्रबन्ध लिखा।
छात्रया शोधप्रबन्धोऽलेखि = छात्रा के द्वारा शोधप्रबन्ध लिखा गया।
स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः = स्वयंसिद्ध ईश्वर ने ठीक प्रकार से (जैसे होने चाहिए वैसे ही) पदार्थों को शाश्वत प्रजा के लिए बनाया।
स्वयंभूर्याथातथ्यतोऽर्थाः व्यधायिषुः शाश्वतीभ्यः समाभ्यः = स्वयं सिद्ध ईश्वर के द्वारा ठीक प्रकार से शाश्वत प्रजा के लिए पदार्थों का निर्माण किया गया।
विचक्षणाः विद्याञ्चाऽविद्याञ्चा सहैवाऽवेदिषुः = विवेकी विद्वान् ज्ञान तथा कर्म को एक साथ जानते थे।
विचक्षणैः विद्या चाऽविद्या च सहैवाऽवेदि = विवेकी विद्वानों के द्वारा ज्ञान तथा कर्म एक साथ जाने गए।
मुक्ताः अनासक्तभावेन कर्माणि सर्वाणि चक्रुः = मुक्तों ने अनासक्त भाव से सब कर्मों को किया था।
मुक्तैः अनासक्तभावेन कर्माणि सर्वाणि चक्रिरे = मुक्तों के द्वारा अनासक्त भाव से सब कर्म किए गए थे।
कुभोज्येन दिनं नष्टं कुकलत्रेण शर्वरी।
कुपुत्रेण कुलं नष्टं तन्नष्टं यन्न दीयते।। = कुभोजन से दिन, कुपत्नी से रात और कुपुत्र से कुल नष्ट हो जाता है तथा जो नहीं दिया गया है वह (धनादि भी) नष्ट हो जाते हैं।
न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते।
गृहं तु गृहिणीहीनं कान्तारादतिरिच्यते।। = घर को घर नहीं कहते अपितु गृहिणी को ही घर कहा जाता है। गृहिणी के बिना घर जंगल से भी अधिक भीषण होता है।
सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति पण्डिताः।
सकृत् कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत्सकृत्।। = राजा एक ही बार आज्ञा देता है, पण्डित एक ही बार बोलता है अर्थात् दोनों स्व-वचनों पर दृढ़ रहते हैं। कन्यादान एक ही बार किया जाता है। ये तीनों बातें एक ही बार होती हैं, बार-बार नहीं।
यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदनतापताडनैः।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।। = जैसे सोने का खरे-खोटे के पहचान के लिए घिसने, काटने, तपाने और कूटने के द्वारा परीक्षण किया जाता है वैसे मनुष्य का भी दान, शील, गुण और कर्म से परीक्षण किया जाता है।
अभ्यासाद् धार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते।
गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते।। = निरन्तर अभ्यास से विद्या प्राप्त होती है, उत्तम आचरण से कुल धारण किया जाता है (कुल का गौरव-मान बढ़ता है), उत्तम गुणों से आर्य जाना जाता है और आंखों से गुस्सा जाना जाता है।
अज्ञोऽपि तज्ञतामेति शनैः शलोऽपि चूर्ण्यते।
बाणोऽप्येति महालक्ष्यं पश्याऽभ्यास विजृम्भितम्।। = अभ्यास का चमत्कार देखो, अभ्यास से अज्ञानी भी ज्ञानी हो जाता है, पर्वत भी धीरे-धीरे चूरा कर दिया जाता है, बाण भी सूक्ष्म लक्ष्य को बींध सकता है।
वित्तेन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृदुना रक्ष्यते भूपः सत्स्त्रिया रक्ष्यते गृहम्।। = धन से धर्म की, योग से विद्या की, कोमलता व मधुरता से राजा की, तथा सती स्त्री से घर की रक्षा होती है।
ऊर्ध्वबाहुर्विरोम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते।। = मैं दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा हूं, फिर भी मुझे कोई नहीं सुनता है। धर्म से ही धन व इच्छाओं की पूर्ति होती है, उस धर्म का सेवन (लोगों के द्वारा) क्यों नहीं किया जाता..?
अयं च सुरतज्वालः कामाग्निः प्रणयेन्धनः।
नराणां यत्र हूयन्ते यौवनानि धनानि च।। = भोग जिसकी ज्वालाएं हैं, प्रेम जिसका इंधन है ऐसी इस कामरूपी अग्नि में मनुष्य के यौवन तथा धन दोनों का होम (नष्ट) हो जाता है।
सत्येन धार्यते पृथिवी सत्येन तपते रविः।
सत्येन वाति वायुश्च सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम्।। = सत्य के कारण ही पृथ्वी टिकी हुई है, सत्य प्रताप से ही सूर्य तप रहा है, सत्य के बल से वायु बह रही है, सब कुछ सत्य में ही स्थिर है।
गोभिर्विपै्रश्च वेदैश्च सतीभिर्सत्यवादिभिः।
अलुब्धैर्दानशरैश्च सप्तभिर्धार्यते मही।। = गो, ब्राह्मण, वेद, सती स्त्री, सत्यवादी, निर्लोभी, दानवीर इन सात के द्वारा पृथ्वी धारण की जाती है।
भ्रमन् सम्पूज्यते राजा भ्रमन् सम्पूज्यते द्विजः।
भ्रमन् सम्पूज्यते योगी स्त्री भ्रमन्ती विनश्यति।। = भ्रमण करनेवाले राजा, ब्राह्मण (विद्वान्) तथा योगी सर्वत्र आदर प्राप्त करते हैं, किन्तु भ्रमण करनेवाली नारी नष्ट हो जाती है।
हस्ती अंकुराहस्तेन वाजी हस्तेन ताड्यते।
शृङ्गी लगुडहस्तेन खड्गहस्तेन दुर्जनः।। = हाथी हाथ में पकड़े हुए अंकुश से वश में किया जाता है, घोड़ा चाबुक से पीटा जाता है, सींगवाला पशु दण्डे से पीटा जाता है और दुर्जन मनुष्य हाथ में ली हुई तलवार से मारा जाता है।
गम्यते यदि मृगेन्द्रमन्दिरं, लभ्यते करिकपोलमौक्तिकम्।
जम्बुकाऽऽलयगते च प्राप्यते वत्सपुच्छखरश्चर्मखण्डनम्।। = सिंह की गुफा में जाने से हाथी के मस्तक का मोती प्राप्त होता है, गीदड़ के स्थान में जाने पर बछड़े की पूंछ तथा गधे के चमड़े का टुकड़ा मिलता है। (अर्थात् बड़ों के साथ मैत्री करनी चाहिए, नीचों के साथ नहीं..)
धीरोऽप्यतिबहुज्ञोऽपि कुलजोऽपि महानपि।
तृष्णया बद्ध्यते जन्तुः सिंहः शृङ्खलया यथा।। = धीर, विद्वान्, कुलीन और महान् व्यक्ति भी तृष्णा से ऐसे बन्ध जाता है, जैसे सांकल द्वारा सिंह बांध दिया जाता है।
पदं हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते = गुण सर्वत्र अपना प्रभाव जमा देते हैं।
किं कुलेन विशालेन विद्याहीनेन देहिनाम्।
दुष्कुलीनोऽपि विद्वांश्च देवैरपि सुपूज्यते।। = विद्याहीन बड़े कुल से मनुष्य को क्या लाभ है ? निम्नकुलोत्पन्न विद्वान् व्यक्ति बड़े-बड़े विद्वानों के द्वारा सम्मानित किया जाता है।
विद्वान् प्रशस्यते लोके, विद्वान् गच्छति गौरवम्।
विद्यया लभ्यते सर्वं विद्या सर्वत्र पूज्यते।। = संसार में विद्वान् ही प्रशंसित होता है, विद्वान् ही सर्वत्र आदर पाता है, विद्या से धन-धान्य, मान-प्रतिष्ठा सब कुछ मिलता है। विद्या का सर्वत्र आदर होता है।
का चिन्ता मम जीवने यदि हरिर्विश्वम्भरो गीयते।
नो चेदर्भकजीवनाय जननीस्तन्यं कथं निर्मयेत्।
इत्यालोच्य मुहुर्मुहुर्यदुपते लक्ष्मीपते केवलम्।
त्वत्पादाम्बुजसेवनेन सततं कालो मया नीयते।। = मुझे मेरे जीवन की क्यों चिन्ता जब सब दुःखों को हरण करनेवाला परमेश्वर (हरि) विश्वम्भर याने सबका भरण-पोषण करनेवाला कहा जाता है। यदि ईश्वर ऐसा न होता तो शिशु के जीवन के लिए माता के स्तनों में दूध कैसे बनता..? बारंबार ऐसा विचार कर हे प्रजापते अर्थात् यदुपते, ऐश्वर्यों के स्वामीन् अर्थात् लक्ष्मीपते मैं आपके शरण में आकर अपना समय व्यतीत करता हूं।
जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।
स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।। = पानी की एकेक बून्द से घड़ा भर जाता है। इसी प्रकार धीरे-धीरे अभ्यास करने से सब विद्याओं की प्राप्ति हो जाती है। इसी प्रकार थोड़ा-थोड़ा करके धर्म और धन का संचय भी हो जाता है।
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्यविघ्नविहता विरमन्ति मध्याः।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः प्रारभ्य चोत्तमजनाः न परित्यजन्ति।। = अधम पुरुष विघ्नों के भय से किसी कार्य को आरम्भ ही नहीं करते। मध्यम श्रेणी के लोग कार्य को आरम्भ तो कर लेते हैं किन्तु विघ्नों से विचलित होकर बीच में ही छोड़ देते हैं। उत्तम श्रेणी के लोग विघ्नों से बार बार प्रताड़ित किए जाने पर भी आरम्भ किए हुए कार्य को पूर्ण किए बिना नहीं छोड़ते।
यः स्वभावो हि यस्याऽस्ति स नित्यं दुरतिक्रमः।
श्वा यदि क्रियते राजा स किं नाश्नात्युपाहनम्।। = जिसका जो स्वभाव है, उसे बदलना अत्यन्त कठिन है। यदि कुत्ते को राजा बना दिया जाए तो क्या वह जूता चबाने के अपने स्वभाव को छोड़ सकता है..?
स्नेहेन तिलवत्सर्वं सर्गचक्रे निपीड्यते।
तिलपीडैरिवाक्रम्य क्लेशैरनज्ञानसम्भवैः।। = तेली लोगों के द्वारा तेल के लिए तिल जिस प्रकार कोल्हू में पिसे जाते हैं, उसी प्रकार स्नेह के कारण सब लोग अज्ञानजनित क्लेशों के द्वारा सृष्टिचक्र में पिसे जा रहे हैं।
शुभेन कर्मणा सौख्यं दुःखं पापेन कर्मणा।
कृतं फलति सर्वत्र नाकृतं भुज्यते क्वचित्।। = शुभकर्म करने से सुख और पाप कर्म करने से दुःख मिलता है। अपना किया हुआ कर्म ही सर्वत्र फल देता है। बिना किए हुए कर्म का फल नहीं भोगा जाता।
गुरुशुश्रुषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा।
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थं नोपलभ्यते।। = विद्या की प्राप्ति या तो गुरु की सेवा करने से हो सकती है, अथवा बहुत बड़ी धनराशि द्वारा विद्या अर्जित की जा सकती है, अथवा विद्या के बदले विद्या प्राप्ति सम्भव है, चौथा कोई प्रकार विद्याप्राप्ति का नहीं है।
तावन्मौनेन नीयन्ते कोकिलैश्चैव वासराः।
यावत्सर्वजनानन्ददायिनी वाक्प्रवर्तते।। = जब तक सब मनुष्यों को आनन्द देनेवाली वसन्तऋतु आरम्भ नहीं हो जाती, तब तक कोयल मौन रहकर ही अपने दिनों को बिताती है। (अर्थात् बुद्धिमान् को चाहिए कि वह मौन रहे और समय आने पर प्रिय, हितकर, मधुर वचन बोले..)
अस्ति यावत्तु सधनस्तावत्सर्वैस्तु सेव्यते।
निर्धनस्त्यज्यते भार्या पुत्राद्यैः सगुणोप्यतः।। = जब तक मनुष्य के पास धन रहता है, तब तक सबके द्वारा उसकी सेवा की जाती है। जब धनहीन हो जाता है तब गुणवान होने पर भी पत्नी पुत्रादि के द्वारा छोड़ दिया जाता है।
तद्भोजनं यद् द्विजभुक्तशेषं तत्सौहृदं यत्क्रियते परस्मिन्।
सा प्रज्ञता या न करोति पापं दम्भं विना यः क्रियते स धर्मः।। = भोजन वह है जो ब्राह्मण को भोजन करा देने पर बचता है, प्रेम (मैत्री) वह है जो परायों पर किया जाए, विद्वत्ता (बुद्धिमत्ता) वह है जो मनुष्यों को पाप करने से बचाए और धर्म वह है जो बिना दम्भ के किया जाए।
मणिर्लुण्ठति पादाग्रे काचः शिरसि धार्यते।
क्रयविक्रयवेलायां काचः काचः मणिर्मणिः।। = रत्न चाहे पैरो के आगे लुढ़कता रहे और कांच भले ही सिर पर धारण कर लिया जाए। किन्तु मोल लेने या बेचते समय कांच कांच ही रहता है और रत्न रत्न।



संस्कृतं वद आधुनिको भव।
वेदान् पठ वैज्ञानिको भव।।

इति

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