पाठ: (31) सप्तमी विभक्ति (4)


(निमित्त, हेतु, सम्प्रदान आदि के वाचक शब्दों में चतुर्थी के स्थान में सप्तमी का प्रयोग भी देखा जाता है।)
समित्सु आम्रमुत्पाटयति = समिधाओं के लिए आम के पेड़ को फाड़ रहा है।
केशेषु मेषान् पालयति मेषपालः = गड़रिया बालों के लिए भेड़ को पालता है।
धने रागिणः वृक्कं चोरयति वैद्यः = वैद्य धन के लिए रोगी की किड़नी चुराता है।
सम्माने बुधो धनिनो मिथ्यां प्रशंसति = सम्मान के लिए विद्वान् धनी लोगों की मिथ्या प्रशंसा करता है।
पुष्पेषु पाटलान् वपति = पुष्पों के लिए गुलाब के पौधों को बो रहा है।
कर्गलेषु वृक्षान् कर्तयति = कागजों के लिए पेड़ काट रहा है।
उद्योगेषु मूर्खाः क्षेत्रं विक्रीणते = कारखाने के लिए मूर्ख लोग खेत बेचते हैं।
विलासितायां प्राकृतिक-सम्पदं दुहन्ति मूढाः = मूढ़ लोग ऐशो-आराम के लिए प्राकृतिक सम्पदा का दोहन करते हैं।
रे मूर्ख ! पाके कपाटं मा ज्वालय = मूर्ख ! (खाना) पकाने के लिए किवाड़ को मत जला।
चर्मणि द्विपिनं हन्ति दन्तयोर्हन्ति कुञ्जरम्।
केशेषु चर्मरीं हन्ति सीम्नि पुष्कलको हतः।। = लोग चमड़े के लिए चीते को मारते हैं, दातों के लिए हाथी को मारते हैं, केशों के लिए चंवरी गाय को मारते हैं और कस्तुरी के लिए पुष्कलक जाति के हिरण को मारते हैं।
मुखे सिंहं घातयति = मुंह के लिए शेर को मरवाते हैं।
यथा परोपकारेषु नित्यं जागर्त्ति सज्जनः।
तथा परापकारेषु  जागर्त्ति सततं खलः।। = जैसे सज्जन दूसरों का उपकार करने के लिए सदा जागरूक रहता है, वैसे ही खल अर्थात् दुष्ट व्यक्ति दूसरों का अपकार करने के लिए सदा तैयार रहता है।
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढ़ैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।। = पृथ्वी पर जल, अन्न और सत्य मधुर वाणी ये तीन ही रत्न हैं। परन्तु मूर्ख लोग पत्थर के टुकड़ों को ही रत्न कहते हैं।
यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावज्जरा दूरतो, यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्, सन्दीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः।। = जब तक शरीर स्वस्थ और रोगरहित है, जब तक वृद्धावस्था दूर है, जब तक सकल इन्द्रियों में भरपूर शक्ति है, जब तक प्राणशक्ति क्षीण नहीं हुई है; तब तक बुद्धिमान् को चाहिए कि आत्मकल्याण के लिए महान प्रयत्न करे, वरना घर में में आग लगने पर कुंआ खोदने से क्या लाभ होगा ?
आर्तेषु विप्रेषु दयान्वितश्च यत् श्रद्धया स्वल्पमुपैति दानम्।
अनन्तपारं समुपैति राजन् यद्दीयते तन्न लभेद्-द्विजेभ्यः।। = दयालु और करुणापूर्ण मनुष्य दुःखी-पीड़ित ब्राह्मणों को जो थोड़ा सा भी दान देता है, हे राजन् ! ऐसे ब्राह्मणों को जितना दान दिया जाता है, वह पुनः उतना ही नहीं प्राप्त होता, किन्तु परमात्मा की कृपा से वह अनन्तगुणा होकर पुनः मिलता है।
वित्तं देहि गुणान्वितेषु मतिमन्नान्यत्र देहि क्वचित्, प्राप्तं वारिनिघेर्जलं घनमुखे माधुर्युक्तं सदा।
जीवान्स्थावरजङ्गमांश्चसकलान् संजीव्य भूमण्डलम्, भूयः पश्य तदेव कोटिगुणितं गच्छन्तमम्भोनिधिम्।। = हे बुद्धिमान् लोगों ! गुणी पुरुषों को ही धन दो, गुणहीनों को नहीं। देखो समुद्र का खारा जल बादल के मुख को प्राप्त होकर मधुर हो जाता है, और फिर पृथ्वी पर गिरकर जड़ और चेतन सभी को जीवन प्रदान करके अनेक गुणा होकर पुनः समुद्र को प्राप्त हो जाता है। (अर्थात बादल को प्राप्त हुआ समुद्र का खारा जल संसार में जीवन का हेतु बनता है और अनेक गुणा होकर पुनः समुद्र को प्राप्त हो जाता है वैसे ही गुणी जनों को दिया धन परोपकार में खर्च होता है और अनेकगुणा होकर पुनः दाता को प्राप्त हो जाता है।)
वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाऽपि च।। = समुद्र में वर्षा, भोजन से तृप्त हुओं को भोजन, धनिकों को दान देना और दिन में दीपक जलाना ये सभी कार्य व्यर्थ हैं।
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशकाले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्।। = इसे देना उचित है ऐसा समझकर अपने पर उपकार न किया होने पर भी, उचित देश और उचित काल में पात्र (योग्य) व्यक्ति को दान दिया जाता है, उस दान को सात्त्विक दान कहते हैं।

(फेंकना अर्थवाली धातुओं के साथ जिस पर फेंका जाता है उसमें सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है।)

मृगे बाणं क्षिपति = जंगली प्राणी पर बाण फेंकता है।
मयि पाषाणखण्डं क्षिपति = मुझपर पत्थर फेंकता है।
विनोदाय वटुकाः तडागे पाषाणान् अस्यन्ति = मनोरंजन के लिए बच्चे तालाब में पत्थर फेंक रहे हैं।
एकलव्य कुक्कुरस्य मुखे बाणान् मुमोच = एकलव्य ने कुत्ते के मुख में बाण छोड़े थे।
वरं तुरङ्गाच्छृङ्गाद्-गुरुशिखरिणः क्वापि विषमे, पतित्वाऽयं कायः कठिनदृषदन्तर्विदलितः।
वरं न्यस्तो हस्तः फणिपतिमुखे तीक्ष्णदशने, वरं वह्नौ पातस्तदपि न कुतः शीलविलयः।। = पर्वत के ऊंचे शिखर से किसी ऊबड़-खाबड़ चट्टान पर गिर करशरीर को नष्ट कर देना उत्तम है, विषधर सर्प के मुख में हाथ डाल देना पड़े तो भी कोई बात नहीं, दहकती हुई अग्नि में कूद जाना बहुत अच्छा है, परन्तु शील का त्याग कर देना अच्छा नहीं है।
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याऽध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।। = मुझे सब कर्म सौंप कर, आध्यात्मिक भावनायुक्त चित्त से, आशारहित, अहंकार-रहित और सन्ताप-रहित होकर युद्ध कर।
ब्रह्मणि सर्वाणि कर्माणि सन्यस्त ये ध्यायन्ते।
अचिरात्संसारसागरात् त एव पारयन्ते।। = जो लोग ईश्वर पर सब कर्मों को छोड़कर ईश्वर की ध्यान-उपासना करते हैं, वे शीघ्र ही संसार-सागर से पार हो जाते हैं।
ब्रह्मणि चित्तमाधाय ब्रह्मकर्मपरो भव।
ब्रह्मर्थं कर्माणि कुर्वन् सिद्धिं परामवाप्स्यसि।। = ब्रह्म में चित्त को रखकर ब्रह्म के लिए कर्म करनेवाला बन जा, ब्रह्म (ईश्वर) के लिए कर्म करता हुआ तू (उपासक) श्रेष्ठ गति को प्राप्त कर लेगा।

(नक्षत्रवाची शब्द यदि नक्षत्र से युक्त काल का वाचक हो, तो उस नक्षत्रवाची शब्द में सप्तमी व तृतीया दोनों का प्रयोग देखा जाता है।)
पुष्ये पुष्येण वा पायसम् अश्नीयात् = पुष्य नक्षत्र से युक्त काल में खीर खावे।
मघासु मघाभिः माषौदनं भक्षयेत् = मघा नक्षत्रवाले दिन में उड़द और भात खावे।
सन्तप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न श्रूयते, मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते।
स्वात्यां सागरशुक्तिमध्यपतितं तन्मौक्तिकं जायते, प्रायेणाधममध्यमोत्तमजुषामेवंविधा वृत्तयः।। = गर्म लोहे पर पड़ी हुई पानी की बूंद का नामो-निशान भी नहीं रहता, वही बूंद कमल के पत्ते पर गिरकर मोती के समान चमकने लगती है, फिर वही बूंद स्वाती नक्षत्र से युक्त काल में समुद्र के सीप में पड़कर मोती बन जाती है। इससे यह प्रतीत होता है कि अधम, मध्यम और उत्तम गुण मनुष्य में सत्संग से ही उत्पन्न होते हैं।

(स्वामी, ईश्वर, अधिपति, दायाद, साक्षी, प्रतिभू और प्रसूत इन शब्दों से सम्बन्धित शब्द में विकल्प से सप्तमी विभक्ति होती है पक्ष में षष्ठी विभक्ति होती है।)

सर्वेषु सर्वेषां वा ईश्वरत्वाद् ईश्वर ईश्वरः कथ्यते = सब का स्वामी होने से ईश्वर ईश्वर कहाता है।
गोपालो गोषु गवां वा स्वामी वर्तते = गोपाल गायों का स्वामी है।
प्रजासु प्रजानां वाऽधिपतिः शूरः प्रजावत्सलश्च भवेत् = प्रजा का अधिपति शूर तथा प्रजावत्सल होना चाहिए।
आर्येषु आर्याणां वा दायाद आर्य एव स्यात् = आर्य (श्रेष्ठ व्यक्ति) का उत्तराधिकारी आर्य ही होना चाहिए।
दुष्टः पुत्रः पितरि पित्रोर्वा दायादो न भवेत् = दुष्ट सन्तान पिता का उत्तराधिकारी नहीं होनी चाहिए।
अस्याः घटनायाः अस्यां घटनायां वा साक्षिणः के सन्ति ? = इस घटना के साक्षी कौन-कौन हैं ?
वाक्कीलः प्रतिवादिनः प्रतिवादिनि वा साक्षिणं वाचा कीलति = वकील प्रतिवादी के साक्षी को वाणी से बांध लेता है।
श्यामे पलायिते श्यामस्य श्यामे वा प्रतिभूः रुप्यकाणि ददाति = श्याम के भाग जाने के कारण श्याम का जामिन पैसे दे रहा है।
क्षत्रियकुले क्षत्रियकुलस्य वा प्रसूतोऽपि कर्णः दौर्भाग्यात् सूदपुत्र इतिनाम्ना ख्यातिं जगाम = क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होने पर भी दुर्भाग्य से कर्ण सूदपुत्र कहाया।
शूद्रकुले शूद्रकुलस्य वा प्रसूतो विद्यया ब्राह्मणत्वमेति = शूद्रकुल में उत्पन्न हुआ व्यक्ति विद्या से ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लेता है।

(उप शब्द के प्रयोग में जिससे अधिकता बताई जा रही हो, उसमें सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है। तथा ‘अधि’ शब्द के प्रयोग में जिसका स्व-स्वामी-भाव बताया जा रहा हो, उससे सप्तमी विभक्ति होती है।)

उप किलोग्रामे पञ्च शतानि ग्रामाः सन्ति सितायाः = एक किलो से पांचसौ ग्राम मिश्री अधिक है।
अस्यां वातादगोण्यां उप क्विंटले दश किलोग्रामाः सन्ति = इस बोरी में एक क्विंटल से दस किलो अधिक बादाम हैं।
अस्मिन् कुसूले उप टनचतुष्टये गोधूमानां क्विण्टलं वर्तते = इस कोठी में चार टन से एक क्विंटल अधिक गेहूं है।
अस्याम् गोदोहन्याम् उप लिटरपञ्चके दुग्धस्य शतं मिलिलिटराणि सन्ति = इस दुग्धपात्र में चार लिटर से सौ मिलिलिटर दूध अधिक है।
कञ्चुकाय उप मीटरत्रितये चत्वारिंशत् सेंटीमीटराणि वस्त्रस्य प्रयोक्ष्यते = कुर्ते के लिए तीन मीटर से चालीस सेंटीमीटर कपड़ा अधिक लगेगा।
अधि नरेंन्द्रे भारतीयाः सन्ति = नरेन्द्र मोदी के अधीन भारतीय हैं।
अधि भारतीयेषु नरेन्द्रो वर्तते = भारतीयों के अधीन नरेन्द्र मोदी है।
यत्र राजा अधि प्रजासु वर्तते प्रजा च अधि राजनि, तत्सुराष्ट्रमुच्यते = जहां राजा प्रजा के अधीन और प्रजा राजा के अधीन होती है, वह सुराष्ट्र कहाता है।
अधि आचार्येषु ये छात्राः भवन्ति त एव सुरक्षिताः सुशीलाश्च भवन्ति = जो छात्र आचार्य के अधीन रहते हैं, वे ही सुरक्षित व सुशील होते हैं।
अधि पित्रोरभावाद् बालकाः पथभ्रष्टाः जाताः सन्ति = माता-पिता के अधीन न होने से बच्चे पथभ्रष्ट हो गए हैं।
अधि परमात्मनि सकलं जगत् वर्तते = परमात्मा के अधीन सकल संसार है।



संस्कृतं वद आधुनिको भव।
वेदान् पठ वैज्ञानिको भव।।
 इति

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