पाठ : (४०) कृदन्त ७ (क्त्वा + णमुल् प्रत्ययौ) + तुमुन् प्रत्ययाः ||


(‘‘बार-बार करना’’ इस अर्थ में एक ही वाक्य में प्रयुक्त समान = एक कर्त्तावाली दो धातुओं में से पूर्वकालिक धातु से क्त्वा तथा णमुल् प्रत्ययों का प्रयोग होता है। क्त्वा के समान णमुल् प्रत्ययान्त क्रिया शब्द भी अव्यय होता है, अतः सब विभक्तियों में इसके रूप नहीं चलते।)


कूर्दित्वा कूर्दित्वा बालेन खट्वायाः रज्जुः शिथिला कृताः = कूद-कूद कर बच्चे ने खटिया की रस्सी ढीली कर दी।
कूर्दं कूर्दं बालेन खट्वायाः रज्जुः शिथिला कृता = (अर्थ वही)
अलसो भोजं-भोजं भुक्त्वा-भुक्त्वा वा स्वपिति = आलसी खा-खाकर सो जाता है।
स्नात्वा-स्नात्वा स्नायं-स्नायं वा महिष्य: ह्रदस्य जलम् मलिनमकार्षुः = बार-बार नहाकर भैंसों ने तालाब का पानी गंदा कर दिया।
नवजातं शिशुं दृष्ट्वा-दृष्ट्वा दर्शं-दर्शं वा माता मोदते = नवजात बच्चे को देख-देखकर माता प्रसन्न हो रही है।
पीत्वा-पीत्वा पायं-पायं वा मद्यं मद्यपो भूमौ लुण्ठति = शराब पी-पीकर शराबी भूमि पर लोट रहा है।
पठित्वा-पठित्वा पाठं-पाठं वा पुस्तकम् उत्पाटितं किन्तु जडमतिर्न उत्तीर्णः = पढ़-पढ़कर पुस्तक फट गई किन्तु जड़मति उत्तीर्ण न हुआ।
सीमास्थः सैनिकः स्मारं-स्मारं स्मृत्वा-स्मृत्वा वा नवोढां समयं नयति = सरहद पर तैनात सैनिक दुल्हन को याद कर-करके समय बिता रहा है।
पातं-पातं पतित्वा-पतित्वा वा पुनरुत्थाय बालो चलति = बार-बार गिरकर पुनः उठकर बालक चलता है।
लिखित्वा-लिखित्वा लेखं-लेखं वा हस्ते पीडा सञ्जाता = लिख-लिखकर हाथ में दर्द होने लगा।
चलित्वा-चलित्वा चालं-चालं वा पादौ व्रणितौ = चल-चलकर पैरों में छाले पड़ गए।
मम पितामहो भोजनं चर्वित्वा-चर्वित्वा चर्वं-चर्वं वा खादति स्म = मेरे दादाजी भोजन चबा-चबाकर खाते थे।
मात्रा वियुक्तो बालो रोदं-रोदं रुदित्वा-रुदित्वा वा श्रान्तः पुनरपि माता न प्राप्ता = मां से बिछुडा बच्चा रो-रोकर थक गया किन्तु मां नहीं मिली।
आसम्-आसम् आसित्वा-आसित्वा वा श्रान्ता वयं कुत्रापि गन्तव्यमधुना = बैठ-बैठकर थक गए अब कहीं चलना चाहिए।
वृद्धाश्रमस्था वृद्धा स्थायं-स्थायं स्थित्वा-स्थित्वा वा पुनः चलित्वा किमपि चिन्तयति = वृद्धाश्रम में स्थित बुढिया रुक-रुककर पुनः चलकर कुछ सोच रही है।
घ्रात्वा-घ्रात्वा घ्रायं-घ्रायं वा भूमिं कुक्कुरः चौरमन्वैष्यत् = सूंघ-सूंघकर भूमि को कुत्ते ने चोर का पता लगा लिया।
गृहं गत्वा-गत्वा गामं गामं वा विधर्मिणः स्वधर्मप्रचारं कुर्वन्ति = घरों में जा-जाकर विधर्मी अपने धर्म का प्रचार करते हैं।
सरागो मृत्वा-मृत्वा मारं-मारं वा पुनर्जायते = रागी व्यक्ति मर-मरके फिर जन्म लेता है।
सुखेष्वपि दुःखं दृष्ट्वा-दृष्ट्वा दर्शं-दर्शं वा विवेकी विरक्तो भवति = सुखों में भी दुःखों को देख-देखकर विवेकी विरक्त हो जाता है।
तस्य गृहं आगम्य-आगम्य आगामम्-आगामं वा वार्ताकरणं मह्यं न रोचते = उसका घर बार-बार आकर बातें करना मुझे अच्छा नहीं लगता।
उत्थाय-उत्थाय उत्थायमुत्थायं भवान् किं पश्यति ? = उठ-उठकर आप क्या देख रहे हैं ?

तुमुन् प्रत्यय

(‘‘के लिए’’ अर्थ में एक वाक्य में प्रयुक्त समान कर्तावाली दो या दो से अधिक धातुओं का प्रयोग होने पर पूर्वकालिक धातु/धातुओं से तुमुन् प्रत्यय का प्रयोग होता है। तुमुनान्त क्रियावाची शब्द भी अव्यय होने से सभी विभक्तियों में इसके रूप नहीं चलते। अर्ह तथा शक् धातुओं के साथ भी तुमुन् प्रत्यय का प्रयोग होता है।)

भोक्तुं बालो गृहं व्रजति = खाने के लिए बच्चा घर जा रहा है।
चिकित्सालये गहनचिकित्साप्रकोष्ठे (आय.सी.यू.) विद्यमानं स्वकं पितरं द्रष्टुं स आकुली भवति = अस्पताल में गहन चिकित्सा कक्ष में विद्यमान अपने पिता को देखने के लिए वह व्याकुल हो रहा है।
भोजनार्थं घण्टिका निनादिता, भोक्तुं गच्छामि = भोजन की घण्टी बज गई है, खाने के लिए जा रहा/रही हूं।
सुखेन जीवितुं स्वाधीनं राष्ट्रं स्यात् = सुख से जीने के लिए राष्ट्र स्वाधीन होना चाहिए।
भारतदेशं स्वाधीनं कर्त्तुं प्रयतेमहि = भारत को स्वाधीन करने के लिए हमें प्रयत्न करना चाहिए।
सम्यक् कार्याणि विधातुं पूर्वं सम्यक् ज्ञानं स्यात् = कार्यों को ठीक तरह से करने के लिए पहले सटीक ज्ञान होना चाहिए।
स्व-संस्कृतिं रक्षितुं सर्वे जाग्रतु = अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए सभी जागृत होवें।
स्वराष्ट्रं निर्मातुं जात्याग्रहं त्यजेत् = स्वराज्य के निर्माण के लिए जातिवाद का त्याग करना चाहिए।
स्वाम्याज्ञां विना समर्थः सेवकोऽपि किं कर्त्तुमर्हति = स्वामी के आदेश के बिना समर्थ सेवक भी क्या कर सकता है ?
व्यस्ते जीवने जनानां समीपे पर्यटितुं कालोऽस्ति, किन्तु धर्मं ज्ञातुं नास्ति = व्यस्त जीवन में भी लोगों के पास घूमने-फिरने के लिए तो समय है पर धर्म को जानने के लिए नहीं है।
स्वसंस्कृतिम् उन्नेतुं गुरुकुलानि सर्वथा आवश्यकानि = अपनी संस्कृति के उत्थान के लिए गुरुकुल व्यवस्था नितान्त आवश्यक है।
बालकान् गुरुकुलं प्रेषयितुमद्यापि जनाः उत्सुकाः सन्ति, किन्तु न स्वबालान् = गुरुकुल में बच्चों को भेजने के लिए आज भी लोग उत्सुक हैं, किन्तु अपने बच्चों को छोड़कर।
अद्यत्वे सर्वे केवलं धनं प्राप्तुमेवाऽधीयते = आजकल सब धनप्राप्ति के लिए ही पढ़ते हैं।
महदाश्चर्यमेतत् आध्यात्मिकज्ञानरूपां नावं विना दुःखसागरं तरितुमिच्छति = बहुत आश्चर्य की बात है आध्यात्मिक ज्ञानरूपी नाव के बिना दुःखसागर पार करना चाहते हैं।
छिन्नपक्षः पुरुषार्थशतेनाऽपि उड्डयितुं न समर्थः पंखकटा पक्षी लाख कोशिश करने पर भी उड़ने में समर्थ नहीं होता।
विशाखं वृक्षं क आश्रयितुं वाञ्छति ? = विना शाखा के पेड़ का आश्रय कौन लेना चाहता है ?
कृपया उपवेष्टुं किञ्चित स्थानं दद्यात् = कृपा करके बैठने के लिए थोड़ा स्थान दीजिए।
शय्यायां शयितुं मनः कामयते = मन खाट पर सोने की इच्छा कर रहा है।
सर्वप्रदम् ईश्वरं ध्यातुं कस्यापि समीपे कालो नास्ति = सबकुछ देनेवाले ईश्वर का ध्यान करने के लिए किसी के पास भी समय नहीं है।
चलितुं शिक्षमाणः बालः मुहुर्मुहुः पतति = चलना सीखता हुआ बच्चा बार-बार गिर रहा है।
अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्त्तुमर्हति = उसे तू अविनाशी जान जिसने यह संसार फैलाया है। इस अव्यय = अविनाशी का कोई विनाश नहीं कर सकता।
समर्थं को पराजेतुं शक्नोति ? = समर्थ को कौन पराजित कर सकता है ?
ईश्वरं तिरस्कर्त्तुं कः समर्थः ? = ईश्वर का तिरस्कार अर्र्थात् उसकी आज्ञा का उल्लंघन कौन कर सकता है ?

हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्। उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।। = मारनेवाला यदि मारना चाहता है और मरा हुआ अपने आप को मरा जानता है, वे दोनों (मारनेवाला-मरनेवाला) ही नहीं जानते कि आत्मा न तो मारता है न मरता है।

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि। धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते।। = स्वधर्म = अपने कर्त्तव्य को देखते हुए भी हिम्मत हारना उचित नहीं है। क्षत्रिय के लिए धर्मयुद्ध से बढ़कर और कोई कर्त्तव्य नहीं है।

नहि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः। यस्तुकर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।। = किसी भी देहधारी के लिए कर्मों का पूर्णरूपेण त्याग सम्भव नहीं है, परन्तु जो कर्म के फल को त्याग देता है, वही त्यागी कहलाता है।

अम्भोजिनीवनविहारविलासमेव हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता। न त्वस्य दुग्धजलभेदविधौ प्रसिद्धां, वैदग्ध्यकीर्तिमपहर्त्तुमसौ समर्थः।। = अत्यन्त क्रुद्ध विधाता भी हंस को कमलवन का आनन्द लूटने से तो एकदम रोक सकता है परन्तु उसके नीर-क्षीर विवेक के प्रसिद्ध चातुर्य को नष्ट करने में वह भी असमर्र्थ है।

पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम्, नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम्।
धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम्, यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः।।  = यदि वसन्त ऋतु आने पर भी करीर के वृक्ष पर पत्ते नहीं फूटते तो इसमें वसन्त ऋतु का क्या दोष ? यदि उल्लू को दिन में दिखाई नहीं देता तो इसमें सूर्य का क्या अपराध ? यदि चातक के मुख में वर्षा की बूंदें नहीं पड़ती तो इसमें बादल का क्या दोष ? भाग्य में जो लिखा है उसे कौन मिटा सकता है ? (अर्थात् किया हुआ अवश्य भरना पड़ता है।)

त्याज्यं न ध्यैर्यं विधुरेऽपि काले धैर्यात्कदाचित् स्थितिमाप्नुयाद्धि।
जाते समुद्रेऽपि च पोत भङ्गे सांयात्रिको वाञ्छति तर्त्तुमेव।। = कठिनाई के समय के उपस्थित होने पर भी ध्यैर्य नहीं त्यागना चाहिए, किन्तु ध्यैर्य से मनुष्य किसी समय फिर से अपनी पूर्वस्थिति को प्राप्त कर सकता है। जैसे समुद्र के मध्य में जहाज के टूट जाने पर भी जहाज का यात्री तैरकर बचने की ही कामना करते हैं।

न दैवमिति सञ्चिन्त्य त्यजेदुद्योगमात्मनः। अनुद्योगेन तैलानि तिलेभ्यो नाप्तुमर्हति।। = मनुष्य ‘‘भाग्य ही सब कुछ है’’ ऐसा विचार करके अपने पुरुषार्थ का त्याग न करे बिना पुरुषार्थ के तो मनुष्य तिलों से तैल भी प्राप्त नहीं कर सकता।

स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्त्तुमन्यथा। सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम्।। = उपदेश से कोई किसी के स्वभाव को नहीं बदल सकता। भलीभांति खौलाया हुआ पानी भी पुनः शीतल हो जाता है।

क्षालयन्ति हि तीर्थानि सर्वथा देहजं मलम्। मानसं क्षालितुं तानि न समर्थानि वै नृपः।। = गङ्गादि जलमय तीर्थ में स्नान करने से शरीर का मल ही धुलता है, हे राजन् ये जलमय तीर्थ मानसिक दोषों को धोने में सर्वथा असमर्थ हैं।

दह्यमानाः सुतीव्रेण नीचाः परयशोऽग्निना।
अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते।। = दुर्जन दूसरे की कीर्त्तिरूपी अग्नि से जलते हुए जब उस पद को प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं तब वे उस गुणी की निन्दा करने में प्रवृत्त हो जाते हैं।

पतितः पशुरपि कूपे निःसर्त्तुं चरणचालनं कुरुते।
धिक् त्वां चित्त भवाब्देरिच्छामपि नो बिभर्षि निःसर्त्तुम्।। = कुंए में गिरा हुआ पशु भी उसमें से निकलने के लिए पैर चलाता है, प्रयत्न करता है, पर हे मन ! तुझे धिक्कार है, तू भवसागर से निकलने की इच्छा भी नहीं करता।

यस्य चाप्रियमिच्छेत तस्य ब्रूयात् सदा प्रियम्। व्याधो मृगवधं कर्त्तुं गीतं गायति सुस्वरम्।। = जिसका अप्रिय करने की इच्छा हो उससे सदा मधुर भाषण करना चाहिए जैसे शिकारी हिरन का शिकार करने के लिए पहले मधुर स्वर से गीत गाता है।

यदीच्छसि वशीकर्त्तुं जगदेकेन कर्मणा। परापवादसस्येभ्यो गां चरन्तीं निवारय।। = हे मनुष्य यदि तू एक ही कर्म के द्वारा संसार को अपने वश में करना चाहता है तो दूसरों की निन्दा करने में लगी हुई अपनी वाणी को वश में कर, अर्थात् किसी की निन्दा मत कर।

या साधूँश्च खलान्करोति विदुषो मूर्खान्हितान्द्वेषिणः, प्रत्यक्षं कुरुते परोक्षममृतं हलाहलं तत्क्षणात्।
तामाराधय सत्क्रियां भगवतीं भोक्तुं फलं वाञ्छितं, हे साधो व्यसनैर्गुणेषु विपुलेष्वास्थां वृथा मा कृथाः।। = हे सज्जन ! यदि तुझे मनोवांछित फल भोगने की इच्छा है तो सब के द्वारा सम्मानित उस सत्कर्म का अनुष्ठान करो जो दुष्टों को सज्जन, मूर्खों को विद्वान्, शत्रुओं को मित्र, गुप्त वस्तुओं को प्रकट और विष को तत्काल अमृत बना देता है। बहुत से गुणों के उपार्जन का व्यर्थ उद्योग न करके तुम केवल सुकर्म ही करो।

घातयितुमेव नीचः परकार्यं वेत्ति न प्रसादयितुम्।
पातयितुमस्ति शक्तिर्वायोर्वृक्षं न चोन्नमितुम्।। = अधम पुरुष पराए कार्यों को नष्ट करना ही जानता है, किन्तु बनाना नहीं जानता। जिस प्रकार वायु की शक्ति वृक्षों को उखाड़ने की ही है, किन्तु गिरे हुए वृक्ष को जमाने में नहीं।


इति

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