पाठ: (17) पञ्चमी विभक्ति:


जिससे कोई व्यक्ति या वस्तु पृथक् / अलग होती है, उसे अपादान कहते हैं। अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होता है।)
बालकः कुड्यात् पतति = बालक दीवार से गिरता है।
वृक्षात् पीतानि पत्राणि पतिष्यन्ति = पेड़ से पीले पत्ते गिरेंगे।
जन्तुशालायां भित्तेः प्रच्युतः किशोरः व्याघ्रस्य पिञ्जरेऽपतत् = प्राणिसंग्रहालय में दीवार से फिसला हुआ किशोर बाघ के पिंजरे में जा गिरा।
शिशुः प्रेङ्खात् अलुठत् = बच्चा पालने में से लुढ़क गया।
वानरः कदापि वृक्षात् न प्रच्यवते = बंदर कभी भी पेड़ से नहीं गिरता।
मरुभूमिम् अटित्वा पर्यटकः उष्ट्रात् अवरोहति = मरुभूमि में घूमकर पर्यटक उंट से नीचे उतर रहा है।
गिरेः अजाडवीः अवारोहन् = पहाड़ से भेड़-बकरियां नीचे उतरीं।
प्राकारात् पतितात् अश्वात् लुठत्यश्वारोहकः = परकोटे से गिरते हुए घोड़े पर से घुड़सवार गिर रहा है।
उखायाः संस्रते दुग्धम् = बटलोई से दूध गिर रहा है।
भिदायाः अवसंस्रते जलम् = दरार से पानी रिस रहा है।
कूपात् जलमुद्धरति कन्या = कन्या कुंए से पानी निकाल रही है।
सम्पुटकात् याज्ञिकः यज्ञाय घृतं निस्सारयति = डिब्बे में से याज्ञिक यज्ञ के लिए घी निकाल रहा है।
क्षुधितस्य निर्धनस्य बालस्य नेत्रात् निस्सरितान्यश्रूणि कपोलौ क्लेदयन्ति = भूखे बरीब बच्चे की आंख से निकले हुए आंसु दोनों गालों को गीला कर रहे हैं।
वदनात् च्युतं वाग्बाणं हृदयं विदारयति = मुख से निकला वाग्बाण दिल को चीर देता है।
अश्वत्थामानं हतं ज्ञात्वा द्रोणस्य हस्तात् धनुः अवास्रंसत = अश्वत्थामा को मरा जानकर द्रोण के हाथ से धनुष नीचे गिर गया।
असतो मा सद्गयय = मुझे असत्य से छुड़ाकर सत्य की ओर ले चल।
तमसो मा ज्योतिर्गमय = मुझे अन्धकार से छुड़ाकर प्रकाश की ओर ले चल।
मृत्योर्माऽमृतं गमय = मुझे मृत्यु से छुड़ाकर अमृत / मोक्ष की ओर ले चल।
रक्षकभटानां प्रमादात् सः दुष्टः कारागारात् अपलायत् = पुलिस के प्रमाद के कारण वह दुष्ट जेल से भाग गया।
स्नानार्थं स्वामी दयानन्दः स्वकीयाय गुरवे विरजानन्दाय गङ्गायाः जलम् आनयति स्म = स्नान के लिए स्वामी दयानन्द अपने गुरु विरजानन्द के लिए गङ्गा से पानी लाते थे।
प्रज्ञामेवाऽगमयति यः प्राज्ञेभ्यः सः पण्डितः = जो बुद्धिमानों से ज्ञान को प्राप्त करता है वह विद्वान् होता है।
धार्तराष्ट्रा वनं राजन् व्याघ्राः पाण्डुसुता मताः।
मा वनं छिन्धि सव्याघ्रं मा व्याघ्रा नीनशन् वनात्।। = हे राजन् ! तुम्हारे पुत्र दुर्योधनादि वन के तुल्य हैं और पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरादि व्याघ्र के तुल्य ! अतः व्याघ्र सहित वन को नष्ट मत करो और न वन से व्याघ्र को।
अर्थसिद्धिं परामिच्छन् धर्ममेवादितश्चरेेत्।
न हि धर्मादपैत्यर्थः स्वर्गलोकादिवामृतम्।। = उत्तम अर्थ को चाहनेवाला व्यक्ति पहले धर्म का ही आचरण करे। क्योंकि अर्थ धर्म से अलग नहीं होता, जैसे स्वर्ग से अमृत पृथक् नहीं होता। (तात्पर्य बिना धर्म के अर्थ प्राप्त नहीं होता।)
नित्योदकी नित्ययज्ञोपवीती नित्यस्वाध्यायी पतितान्नवर्जी।
सत्यं ब्रुवन् गुरवे कर्म कुर्वन्, न ब्राह्मणश्च्यवते ब्रह्मलोकात्।। = नित्य आचमन (= सन्ध्या) करनेवाला, नित्य अग्निहोत्रादि करनेवाला, नित्य स्वाध्याय करनेवाला, पतित (पापी) पुरुषों का अन्नत्याग करनेवाला, सत्य बोलनेवाला, गुरुजनों के अनुरूप कर्म करनेवाला ब्राह्मण ब्रह्मलोक = ब्रह्मत्व से नष्ट नहीं होता।
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्षतेऽशुभात्।। = क्या कर्म है और अकर्म क्या है, इस विषय में विद्वान् भी भ्रम में पड़े हुए हैं। मैं तुझे वह कर्म बताऊंगा, जिसे जानकर अशुभ कष्टों से मुक्त हो जाएगा।
ज्ञेयः स नित्य संन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।। = उसे सदा संन्यासी समझना चाहिए जो न द्वेष करता है और न हि चाहना। हे महाबाहु अर्जुन, जो द्वन्द्वों से रहित होता है, वह सरलता से कर्म के बन्धन से छूट जाता है।
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।। = हे कृष्ण ! अगर कोई श्रद्धा से युक्त साधक योग मार्ग पर चल पड़ा, किन्तु संयम पूरा न सधने से योगमार्ग से विचलित हो गया और योग की सिद्धियों को न प्राप्त कर सका, ऐसा साधक किस गति को प्राप्त करता है ?
यदा संहरते चायं कूर्मोङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। = जैसे कछुआ अपने अंगों को सब ओर से सिकोड़कर अपने खोल के अन्दर खींच लेता है, उसी प्रकार जब कोई पुरुष इन्द्रियों के विषयों में से अपनी इन्द्रियों को खींच लेता है, तब समझो उसकी प्रज्ञा बुद्धि स्थिर हो गई।
शिरः शार्वं स्वर्गात् पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं,
महीध्रादुत्तुङ्गाद् अवनिमवनेश्चापि जलधिं।
अधो गङ्गा सेयं पदमुपगता स्तोकमथवा,
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः।। = गङ्गा नदी स्वर्ग से शिव के सिर पर पहुंची, शिव के सिर से हिमालय पर्वत पर ऊंचे हिमालय पर्वत से पृथ्वी पर और पृथ्वी से भी समुद्र में जा गिरी। इस प्रकार गंगा नीचे से नीचे पद को प्राप्त होती गई। ठीक इसी प्रकार विवेकभ्रष्ट मनुष्यों का सैकड़ों प्रकार से पतन होता है।
करात्पतितोऽपि कन्दुकः उत्पतत्येव = हाथ से नीची गिरी हुई गेंद ऊपर उठती ही है।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनः = कुटिलतायुक्त पापाचरण को हमसे दूर कीजिए।
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।। नीति में निपुण लोग चाहें निन्दा करें अथवा प्रशंसा करें, येथेष्ट धन-सम्पत्ति चाहे प्राप्त हो अथवा चली जावे, आज ही मरण हो अथवा दीर्घकाल के बाद, किन्तु धीर पुरुष न्याय के पथ से एक कदम भी इधर-उधर नहीं हटते।
उदेहि मृत्योः = मृत्यु से ऊपर उठो।
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि।। = हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन्..! व्रतों के पालक, मैं व्रत धारण करता हूं, व्रत पालन का सामर्थ्य मुझे दो, जिससे मैं इस झूठ, छल, कपट आदि से पृथक् होकर सत्य को प्राप्त हो सकूं।
पृष्ठात्पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम् = पृथ्वी की पीठ से ऊपर उठकर मैंने अन्तरिक्ष को प्राप्त किया, अन्तरिक्ष से द्युलोक को, सुखमय द्युलोक की पीठ से भी ऊपर उठकर मैंने सुखस्वरूप परम ज्योति को प्राप्त किया।

(भय और रक्षा अथवाली धातुओं के साथ जिससे भय लगता है और जिससे रक्षा की जाती है उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान कारक में पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है।)

विपत्तेः सर्वे बिभ्यति = विपत्तियों से सब डरते हैं।
अधर्माद् बिभेति सज्जनः = सज्जन व्यक्ति अधर्म से डरता है।
मृत्योर्मा भेम शवसस्पते = हे बलों के अधिपति तू मृत्यु से मत डर। (अर्थात् तू बलवान् है तुझे मृत्यु से डरने की जरूरत नहीं है।)
कस्माद् बिभेषि तवाहं सखा अस्मि = किससे डरता है ? मैं तेरा सखा हूं।
धर्माचरणाद् मा बिभीयात् = धर्माचरण से मत डर।
बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति = मुझपर यह प्रहार करेगा (मुझे यह नष्ट करेगा) ऐसा सोचकर वेद अज्ञानियों से डरता है।
पिञ्जरे पतितः किशोरः व्याघ्रात् भृशम् अबिभेत् = पिंजरे में गिरा हुआ किशोर बाघ से खूब डरा।
अकामो धीरो अमृतः स्वयम्भू रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः।
तमेव विद्वान्न बिभाय मृत्योरात्मानं धीरमजरं युवानम्।। = ईश्वर पूर्णकाम, धीर, अमृत, स्वयं आधार, आनन्द रस से तृप्त अर्थात् परिपूर्ण है। ऐसे धीर अजर सदा युवा (सामर्थ्यशाली) परमात्मा को जाननेवाला व प्राप्त करनेवाला व्यक्ति मृत्यु से नहीं डरता।
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु।। = हमें मित्र से अभय हो, अमित्र (शत्रु) से अभय हो, जिसको जानते हैं उससे अभय हो, जिसको नहीं जानते उससे भी अभय हो, रात्रि में भी अभय हो दिन में भी अभय हो, सब दिशाएं हमारी मित्र हों अर्थात् हमें सब काल में सभी ओर से निर्भयता प्राप्त हो।
क्षत्रियः दुष्टेभ्यः प्रजा त्रायते = क्षत्रिय दुष्टों से प्रजा की रक्षा करता है।
रक्षसेभ्यो रक्ष = राक्षसों से रक्षा करो।
पाहि पृथ्वीं पापिभ्यः पार्थ = हे पार्थ पृथ्वी की पापियों से रक्षा करो।
तापात् त्रायस्व तात = हे पिता ताप से मुझे बचाओ।
त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुतः = हमें दुर्दशा से और सभी प्रकार की कुटिलता से बचाओ।
पुन्नरकं ततस्त्रायते इति पुत्रः = पुं याने नरक याने दुःख से माता-पिता को तारनेवाला पुत्र कहाता है।
नैनं छन्दांसि वृजनात् तारयन्ति मायाविनं मायया वर्तमानम्।
नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाश्छन्दांस्येनं प्रजहत्यन्तकाले।। = छल प्रपंच से व्यवहार करनेवाले इस मायावी पुरुष को वेद भी पापकर्म के फलभोग से नहीं बचा सकते। अपितु जैसे पंख निकल आने पर पक्षी अपने घोंसले को छोड़ देते हैं, वैसे वेद भी इस मायावी पुरुष को अन्तकाल में छोड़ देते हैं।
आवृत्तिर्भयमन्त्यानां मध्यानां मरणाद् भयं।
उत्तमानां तु मर्त्यानामवमाननात् परं भयं।। = साधारण लोगों को निर्वाह के साधनों के अभाव का भय होता है, मध्यम जनों को मृत्यु से भय होता है, उत्तम जनों को तो अपमान से महान् भय होता है।
सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।
अमृतस्येव चाकांक्षेदवमानस्य सर्वदा।। = ब्राह्मण सम्मान से विष के समान भयभीत हो और अपमान की अमृत के समान आकांक्षा करे।
न शत्रुर्वशमापन्नो भोक्तव्यो वध्यतां गतः।
अहताद्धि भयं तस्माज्जायते नचिरादिव।। = वश में आए हुए मारनेयोग्य शत्रु को कभी न छोड़े। वध के योग्य शत्रु को यदि न मारा जाए तो शीघ्र ही उससे अपने को भय प्राप्त होगा।
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेद्।
विश्वासाद् भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति।। = अविश्वासी पर कभी विश्वास न करे और विश्वासी पर भी अतिविश्वास न करे, विश्वास करने से उत्पन्न हुआ भय जड़ों को भी काट डालता है।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।। = अल्पमात्रा में भी किए हुए योगधर्म का कभी नाश नहीं होता, और न हि उसका उलटा फल मिलता है। किन्तु स्वल्प किया हुआ भी धर्म बड़े बड़े भय से बचाने में समर्थ ही होता है। (अर्थात् योगांगानुष्ठान जितना भी किया जाए लाभकारी ही होता है।)

आचार्या शीतल जी आर्ष गुरुकुल अलियाबाद
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