पाठ: (18) पञ्चमी विभक्तिः (2) + सवर्णदीर्घसन्धिः


{जुगुप्सा (घृणा), विराम (रुकना, हटना) तथा प्रमाद (लापरवाही) इन अर्थवाली धातुओं के साथ जिससे घृणा की जाए, जिससे रुका जाए और जिसमें प्रमाद किया जाए उसकी अपादान संज्ञा होती है तथा अपादान कारक में पंचमी विभक्ति होती है।}
पापात् जुगुप्सते = पाप से घृणा करता है।
ऋषयः रक्षोभ्यः जुगुप्सन्ते स्म = ऋषि राक्षसों से घृणा करते थे।
रक्षांसि यज्ञात् जुगुप्सन्ते = राक्षस यज्ञ से घृणा करते हैं।
प्रजा अन्यायात् जुगुप्सेत = प्रजा को अन्याय से घृणा करनी चाहिए।
शौचात् स्वाङ्गात् जुगुप्सा जायते = शौच (शरीर की आन्तरिक व बाह्य शुद्धि करने) से अपने ही शरीर के अंगों से घृणा उत्पन्न होती है।
सदैवाऽसुराः देवेभ्यः अजुगुप्सन्त, जुगुप्सन्ते, जुगुप्सिष्यन्ते च = सदा ही असुर प्रकृति के लोग देव प्रकृति के लोगों से घृणा करते थे, हैं और करते रहेंगे।
अधार्मिकाः धर्मात् कामं जुगुप्सताम् किन्तु धार्मिकाः क्षणमपि धर्मात् न विरमन्ति = अधार्मिक भले ही धर्म से घृणा करें, किन्तु धार्मिक जन क्षणभर के लिए भी धर्म करने से नहीं चूकते।
विरराम रामः घोरसमरात् वनं गतः = राम घोर संग्राम से उपरत (हट गए) हो गए और वन चले गए।
विरमन्तु कदाचारात् = कदाचार को विराम दो।
व्यरमत् रोगी व्यसनेभ्यः = रोगी व्यसनों से दूर हो गया।
मधुपा मृत्यम् आवृणोत् किन्तु मधुपानात् न व्यरंसीत् = शराबी ने मृत्यु का वरण किया किन्तु शराब नहीं छोड़ी।
विरामात् विरम, चरैवेति = रुकने से रुको, चलते ही रहो।
विरामात् विरम, विरामोऽवसानम् = रुकने से रुको, रुकना मृत्यु है।
अप्रियात् सत्यात् विरमेम = हमें सत्य को अप्रिय ढंग से नहीं बोलना चाहिए।
ऋष्युपदेशात् राजा व्यभिचारात् व्यरमत् = ऋषि के उपदेश से राजा व्यभिचार करने से हट गया।
धर्मात् प्रमाद्यति खलः = दुष्ट धर्म में प्रमाद करता है।
प्राणाघातात् निवृत्तिः परमः पन्थाः = जीवहिंसा से हट जाना श्रेष्ठ मार्ग है।
न निश्चयार्थान् विरमन्ति धीराः = धीर लोग अपने निश्चय से नहीं हटते।
न नवः प्रभुराफलोदयात् स्थिरकर्मा विरराम कर्मणः = नया राजा तब तक कर्म करने से नहीं रुक, जब तक उसे फल प्राप्ति न हो गई।
भयाद् रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः = (हे अर्जुन !..) महारथी लोग यह समझेंगे कि तू भय के कारण युद्ध से उपरत हो गया है।
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। = हे महाबाहो अर्जुन ! जिसकी इन्द्रियां अपने विषयों से रोग दी गई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर समझनी चाहिए।
तत् ज्ञानं येन पापेभ्यो विरमति = वह ज्ञान है जिससे व्यक्ति पापाचरण से हटता है।
विरम विरमायासादस्माद् दुरध्यवसायतो, विपदि महतां धैर्यध्वंसं यदीक्षितुमीहसे।
अयि जडविधे कल्पापये व्यपेतनिजक्रमाः कुलशिखरिणः क्षुद्रा चैते न वा जलराशयः।। = हे दुर्भाग्य ! जो तू विपत्ति में महापुरुषों के धैर्य को टूटा हुआ देखना चाहता है तो अपनी इस बुरी नियती के प्रयास से बाज आ जा। ये महापुरुष प्रलयकाल में अपने नियत क्रम को छोड़ देनेवाले तुच्छ कुलपर्वत अथवा समुद्र के समान नहीं हैं। (अर्थात् दुर्भाग्य महापुरुषों को डिगा नहीं सकता।)
अद्यत्वे बालकाः प्रातः जागरणात् प्रमदन्ति = आजकल बच्चे जल्दी उठने में प्रमाद करते हैं।
धर्मात् प्रमाद्यति खलः = दुष्ट धर्म में प्रमाद करता है।
गृहस्थी अतिथि सत्कारात् मा प्रमदेत् = गृहस्थी अतिथिसत्कार में प्रमाद न करे।
स्वाध्यायात् मा प्रमदः = स्वाध्याय में प्रमाद मत कर।
देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् = देवकार्य (संध्या-यज्ञ) तथा पितृकार्य (माता-पिता, गुरु, अतिथि आदि की सेवा) में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
प्रमदायाः प्रमाद्येत् = स्त्रियों में प्रमाद करे (अर्थात् व्यभिचार न करे)।

(परा + जि धातु के प्रयोग में जो असह्य होता है उसकी अपादान संज्ञा होती है तथा अपादान कारक में पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है।)

अध्ययनात् पराजयते = अध्ययन से भागता है।
वृद्धः शैत्यात् पराजयते = बूढे से सर्दी सहन नहीं होती।
गृहिणी गृहकार्यात् पराजयत = गृहिणी गृहकार्य से ऊब गई।
रुग्णस्य पत्युः सेवायाः पत्नी अपि पराजिता = रोगी पति की सेवा करके पत्नी भी हार गई।
स्वच्छन्दी अनुशासनात् पराजयते = स्वच्छन्दी अनुशासन से भागते हैं।
क्षुधायाः पराजितः क्षुधितः प्राणान् अत्याक्षीत् = भूख से पीड़ित भूखे ने प्राण छोड़ दिए।
एकस्मिन् दिने धनपतयोऽपि धनात् पराजेष्यन्ते एव = एक दिन धनपति भी धन से ऊब जाएंगे ही।

(परा + जि धातु जब पराजय करना अर्थ में होती है तब जिसे पराजित किया जाता है उसकी कर्म संज्ञा होने से उसमें द्वितीया विभक्ति का ही प्रयोग होता है।)

शत्रुं पराजयते = दुश्मन को हराता है।
रामः रावणं पराजिग्ये = राम ने रावण को हराया।
धार्मिको विद्वान् एवासत्यं पराजेतुमर्हति = धार्मिक विद्वान् ही असत्य को हरा सकता है।

(वारण याने हटाना अर्थवाली धातुओं के साथ जिससे हटाया जाता है उसकी अपादान संज्ञा होती है और उसमें पंचमी विभक्ति होती है।)

यवेभ्यः गां वारयति = जौ से गाय को हटाता है।
दुग्धात् मार्जारीं वारय = दूध से बिल्ली को हटा।
पुरोहितः यजमानम् अधर्माद् वारयेत् = पुरोहित यजमान को अधर्म से रोके।
परापवादसस्येभ्यो गां चरन्तीं निवारय = दूसरों की निन्दा करनेरूप घास में चरती हुई गाय अर्थात् वाणी को हटाओ।
पापान्निवारति योजयते हिताय, गुह्यं निगूहति गुणान्प्रकटिकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले, सन्मित्रलक्षमिदं प्रवदन्ति सन्तः।। = सन्तजन श्रेष्ठ मित्रों के लक्षण बता रहे हैं- मित्र को पाप से हटाता है, पुण्यकर्म में युक्त करता है। मित्र की गुप्त रखने योग्य बातों को तो छिपाता है परन्तु उसके गुणों को अन्यों के सामने प्रकट करता है। संकटकाल में साथ नहीं छोड़ता और समय आने पर सहयोग करता है, वहीं सच्चा मित्र कहाता है।
संन्यासी गृहस्थान् अनाचारात् निवारयतु = संन्यासी गृहस्थियों को अनाचार से रोके।
आध्यात्मिकं ज्ञानं दुःखान्निवारयति, तस्मात् श्रेष्ठमस्ति = आध्यात्मिक ज्ञान इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि यह सकल दुःखों से हटाता है।
अनाचाराद् वारितः पुत्रः पितरं व्यापादयत् = अनाचार करने से रोके हुए पुत्र ने पिता को मार दिया।
तण्डुलेभ्यः पाषाणखण्डान् अपसारय = चावल में से कंकड़ों को हटाओ।
मशकजालं अस्मत् मशकान् वारयति = मच्छरदानी हमसे मच्छरों को हटाती है।

(छिपने की क्रिया में जिससे छिपना चाहता है, उसकी अपादान संज्ञा होती है तथा उसमें पंचमी विभक्ति होती है।)

उद्दण्डः छात्रः अध्यापकात् निलीयते = उद्दण्ड विद्यार्थी अध्यापक से छिपता है।
चौरः जनेभ्यः निलीय चौर्यं करोति = चोर लोगों से छिपकर चोरी करता है।
अतिथिः भयात् कुक्कुरात् न्यलीयत = अतिथि डर के मारे कुत्ते से छिप गया।
यो जनेभ्यः निलीय तिष्ठति तमपि सः पश्यति = जो लोगों से छिपकर रहता है उसे भी वह (ईश्वर) देखता है।
यो धर्मं नाद्रियते धर्मः तस्मात् निलीयते = जो धर्म को आदर नहीं करता धर्म भी उससे छिप जाता है (अर्थात् उसके साथ कोई धर्म का व्यवहार नहीं करता)।
अधर्मणः उत्तमर्णात् निलीयते = कर्जा लेनेवाला देनेवाले से छिपता है।
सुग्रीवः बालेः न्यलीयत = सुग्रीव वाली से छिप गया।

(नियमपूर्वक अध्ययन करने में जिससे पढ़ा जाए उसकी अपादान संज्ञा होती है और उसमें पंचमी विभक्ति होती है।)

अन्तेवासी अध्यापकात् विद्यां पठति = विद्यार्थी अध्यापक से विद्या पढ़ता है।
नर्तकी नृत्यनिष्णातात् नृत्यं शिक्षति = नर्तकी नाच में दक्ष से नाचना सीखती है।
अहम् आचार्या निरजामहाभागाभ्यो व्याकरणम् अपठम् = मैंने आचार्या नीरजा जी से व्याकरण पढ़ा।
गुरुमुखात् शास्त्राण्यधीताम् = गुरु से शास्त्रों को पढ़ना चाहिए।
रामलक्ष्मणौ विश्वामित्रात् अस्त्रविद्यां शिशिक्षाते = राम और लक्ष्मण ने विश्वामित्र से अस्त्र विद्या सीखी।
लक्ष्मीबाई तात्यागुरोः युद्धविद्याम् अध्यैत = लक्ष्मीबाई ने तात्या-गुरु से युद्धविद्या सीखी।
स्वामी दयानन्दः गुरु-विरजानन्दमहोदयेभ्यो व्याकरणम् अध्यगीष्ट = स्वामी दयानन्द जी ने गुरु विरजानन्द जी से व्याकरण पढ़ा।
शिशुः आदौ मातुरधीते = बच्चा सर्वप्रथम मां से सीखता है।
सृष्ट्यादावृषयो वेदेभ्यः सर्वाः विद्याः अधिजगिरे = सृष्टि के आदि में ऋषियों ने वेद से ही सारी विद्याएं सीखीं।

सवर्ण-दीर्घ-सन्धिः

अकः सवर्णे दीर्घः। अ/आ के बाद अ/आ हो, इ/ई  के बाद इ/ई हो, उ/ऊ के बाद उ/ऊ हो, ऋ/ऋृ के बाद ऋ/ऋृ हो तो दोनों वर्णों के स्थान यथाक्रम आ, ई, ऊ, ऋृ ये दीर्घ वर्ण हो जाते हैं।

अ/आ + अ/आ = आ।
राम + आलयः = रामालयः। इह + अत्र = इहात्र। विद्या + आलयः = विद्यालयः। विद्या + अत्र = विद्यात्र।

इ/ई + इ/ई = ई।
करोति + इदम् = करोतीदम्। पठति + ईशा = पठतीशा। नदी + इति = नदीति। श्री + ईशः = श्रीशः।

उ/ऊ + उ/ऊ = ऊ।
गुरु + उपदेशः = गुरूपदेशः। भानु + ऊहा = भानूहा। वधू + उत्तमा = वधूत्तमा।

ऋ/ऋृ + ऋ/ऋृ = ऋृ।
होतृ + ऋकारः = होतॄकारः। होतृ + ऋॄकारः = होतॄकारः।

ज्योत्स्ना + अभिन्ना = ज्योत्स्नाभिन्ना। ज्योत्स्नाभिन्ना + अच्छधारम् = ज्योत्स्नाभिन्नाच्छधारम्।
ज्योत्स्नाभिन्नाच्छधारं न पिबति सलिलं शरदं मन्दभाग्यः। = चन्द्रमा की चांदनी कारण निर्मल हुए शरद् ऋतु के जल को अभागा नहीं पी पाता।

चातक + आधारो = चातकाधारो। असि + इति = असीति। अम्भोदवर + अस्माकम् = अम्भोदवरास्माकम्। प्रति + ईक्ष्यसे = प्रतीक्ष्यसे।
त्वमेव चातकाधारोऽसीति केषां न गोचरः।
किमम्भोदवरास्माकं कार्पण्योक्तीः प्रतीक्ष्यसे।। = हे मेघश्रेष्ठ ! यह कौन नहीं जानता कि चातकों के एकमात्र प्राणाधार तुम्हीं हो, फिर हम चातकों के दीन वचनों की प्रतीक्षा क्यों कर रहे हो ? (अर्थात् धनिकों को आश्रित की इच्छापूर्ति बिना मांगे ही कर देनी चाहिए।)

दानेषु + उत्तमम् = दानेषूत्तमम्।
सर्वेषु दानेषूत्तमं विद्यादानम् = समस्त दानों में विद्यादान श्रेष्ठ है।

पितृ  ऋणम् = पितॄणम्।
पितॄणम् धनेन कथं पूर्यते ? = माता-पिता का ऋण धन से कैसे चुकाया जा सकता है ?

एव + आत्मना = एवात्मना। आत्मना + आत्मानम् = आत्मनात्मानम्।
स्वयमेवात्मनात्मानं जानीहि = स्वयं ही अपने आप से अपने आप को जान।

तेषू + उपजायते = तेषूपजायते।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्स्तेषूपजायते = विषयों का चिंतन करनेवाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है।

अपि + इह = अपीह।
अल्पं वा बहु वा यस्य श्रुतस्योपकरोति यः।
तमपीह गुरुं विद्याच्छ्रुतोपक्रियया तया।। = जो किसी का थोडे या अधिकरूप से विद्यादान से उपकार करता है उसे भी विद्यारूपी उपकार के कारण गुरु जानना चाहिए।

श्रुतिभानु + उदयो = श्रुतिभानूदयो। आनन्दयति + इह = आनन्दयतीह।
श्रुतिभानूदयोयं जगदानन्दयतीह नितान्तम् = वेदरूपी सूर्य का उदय इस जगत् को अत्यन्त आनन्दित कर रहा है।

तानि + इन्द्रियाणि = तानीन्द्रियाणी। भवति + इति = भवतीति।
तानीन्द्रियाण्यविकलाणि तदेव नाम, सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव।
अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः स एव, त्वन्यः क्षणेन भवतीति विचित्रमेतत्।। = वही सामर्थ्ययुक्त इन्द्रियां हैं और वही नाम है, वही अबाध चिन्तनवाली बुद्धि है, वही वचन है और धनरूपी ऊष्णता से रहित पुरुष भी वही है, किन्तु धन चले जाने के कारण क्षण भर में सब कुछ बदला हुआ लगता है, यह कितने आश्चर्य की बात है !

आचार्या शीतल जी आर्ष गुरुकुल अलियाबाद
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