पाठ: (19) पञ्चमी विभक्ति (3)


(जिससे कोई वस्तु बनती है / उत्पन्न होती है उसकी अपादान संज्ञा होने से उसमें पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है।)
बीजेभ्यः अङ्कुराः जायन्ते = बीजों से अंकुर उत्पन्न होते हैं।
मृगशृङ्गात् शरो जायते = हिरण के सींग से बाण बनता है।
रामात् लवकुशावजायताम् = राम से लवकुश पैदा हुए।
भूमेः वनस्पतयः प्ररोहन्ति =  भूमि से वनस्पतियां उगती हैं।
तण्डुलात् भक्तं निर्मापयति निर्माति वा = चावल से भात बनाती है (पकाती है)।
शीनकेन दुग्धाद् दधि न्यर्मापयत् न्यर्माद् वा = जमावन डालकर (जमावन के द्वारा) दूध से दही बनाया।
अवकराद् दुर्गन्धः उद्गच्छति = कूड़े से दुर्गन्ध उठ रही है (उठती है)।
पूतिकात् शाकादपि दुर्गन्धः उद्भवति = सड़े-गले शाक से भी दुर्गन्ध उठ रही है।
नगरनाल्याः पूतिगन्धः प्रभवति = गटर से दुर्गन्ध उठ रही है।
फाणितात् गुडम् उत्पद्यते = राब से गुड़ बनता है।
हिमालयात् गङ्गा प्रभवति = हिमालय से गंगा निकलती है।
स्वर्णकारः स्वर्णाद् आभूषणानि रचयति = सुनार सोने से आभूषण बनाता है।
कुम्भकारः मृत्तिकायाः मृण्मयानि वस्तूनि विदधाति = कुम्हार मिट्टी से मिट्टि की चीजें बनाता है।
तन्तुवायः तन्तुभ्यः वस्त्रं वयति = जुलाहा धागों से कपड़ा बुनता है।
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञकर्मसमुद्भवः।। = अन्न से भूत = प्राणी उत्पन्न होते हैं, वर्षा से अन्न, यज्ञ से वर्षा और मानवों के कर्मों से यज्ञ उत्पन्न होता है।
प्रकृतेः सृष्टिः प्रादुर्भवति = सत्त्व-रजस्-तमस् रूप प्रकृति से सृष्टि बनती है।
अभावद् भावो न जायते = शून्य से सृजन नहीं होता।
न शशशृङ्गात् वस्तूनि निर्मीयन्ते = खरगोश के सींग से वस्तुएं नहीं बनतीं।
कटिजाद् धानाः व्रीहिभ्यः भिस्सटाः यवेभ्यश्च लाजाः जायन्ते = मक्के से मक्के का फूला (पापकार्न), चावल (छिलके सहित) से ममरा और जौ से लाजा (खील) बनते हैं।

(हेतु = कारणवाची शब्दों में पंचमी तथा तृतीया दोनों का प्रयोग होता है।)

गुणात् शुकः पञ्जरे बध्यते, तस्माद् गुणाः गोपनीयाः = गुण के कारण तोता पिंजरे में बांध दिया जाता है इसलिए गुणों को छिपाकर रखना चाहिए।
गुणैः गुणी उच्यते = गुणों के कारण से मनुष्य गुणी याने गुणवाला कहा जाता है।
विद्यया प्राप्यते लक्ष्मीः = विद्या से धन मिलता है।
लक्ष्म्या च विद्या = और धन से विद्या मिलती है।
समर्पणात् समर्पणेन वा पितरौ तृप्येते = समर्पण से माता-पिता तृप्त होते हैं।
श्रद्धया श्राद्धमुच्यते = जो कार्य श्रद्धा से किया जाता है वह श्राद्ध कहा जाता है।
येन पितरौ तृप्येते तत् तर्पणमुच्यते = जिन कर्मों से मांबाप तृप्त होते हैं, वे कर्म तर्पण कहाते हैं।
जाड्यात् जाड्येन वा मूर्खः व्यसने पतति = जड़ता के कारण मूर्ख मुसीबतों में फंसता है।
ईश्वरो सर्वव्यापकात् सर्वज्ञोऽस्ति, सर्वज्ञत्वात् सर्वशक्तिमान् = ईश्वर सर्वव्यापक होने से सर्वज्ञ है और सर्वज्ञ होने से सर्वशक्तिमान् है।
सर्वव्यापकत्वादेवेश्वरो न जायते = सर्वव्यापक होने से ईश्वर का जन्म नहीं होता।
अतिवृष्टेः नद्याम् आप्लावः समजायत = अधिक वृष्टि के कारण नदी में बाढ़ आ गई।
अनावृष्टेः नद्यः शुष्काः सञ्जाताः = अनावृष्टि के कारण नदियां सूख गईं।
सामुद्रिक-पीडनाद् यदा-कदा झञ्झावतोऽपि भवति = समुद्री दबाव के कारण से कभी-कभी वर्षा के साथ आंधी भी चलती है।
अत्यधिक भोजनाद् उदरं दूयते = अत्यधिक खा लेने से पेट दर्द हो रहा है।
औष्ण्यात् पिटकाः जाताः = उष्णता के कारण फुंसियां हो गईं।
शैत्येन पीनसः बाधते = ठंड के कारण जुकाम हो गया।
पयोहिमेन कासोऽभूत् = आईस्क्रीम से खांसी हो गई।
बहिर्मा गच्छ शीतवातेन प्रतिश्यायो भविष्यति = बाहर मत जा, ठंडी हवा के कारण जुकाम हो जाएगा।
पिनसात् नासिकातः शिङ्घाणं प्रवहति = जुकाम के कारण नाक से रीट बह रही है।
पतनात् अस्थि भिन्नमभवत् = गिरने से हड्डी टूट गई।
यज्ञात् वायौ सुगन्धः प्रसृतः = यज्ञ के कारण हवा में सुगन्ध फैल गई।
तत्कर्म नियतं कुर्याद्येन तुष्टो भवेत् पिता।
तन्न कुर्याद्येन पिता मनागपि विषीदति।। = जिस कार्य से पिता प्रसन्न हों, उस कार्य को नियतरूप से अवश्य करें और जिस कार्य से पिता को थोड़ा सा भी दुःख हो, उसे कदापि करना नहीं चाहिए।
लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः।
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत् = लाड-प्यार से बच्चों में अनेकों दोष उत्पन्न हो जाते हैं और दण्ड देने से अनेक गुण उत्पन्न होते हैं, अतः बच्चों को व शिष्यों को (उचित) ताड़न करना चाहिए, (अनुचित) लाड़ नहीं करना चाहिए।
दिवसेनैव तत्कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत्।
अष्टमासेन तत्कुर्याद् येन वर्षाः सुखं वसेत्।।
पूर्वे वयसि तत्कुर्याद् येन वृद्धः सुखं वसेत्।
यावज्जीवने तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत्।। = मनुष्य को चाहिए कि दिन में ऐसा काम करे, जिससे रात को सुख की नीन्द सोवे। आठ महिनों में ऐसा प्रयत्न करे जिससे वर्षा ऋतु में सुखपूर्वक रह सके। आयु के पूर्वार्द्ध में ऐसा काम करे जिससे वृद्धावस्था में सुखपूर्वक रह सके। और जीवनभर ऐसा काम करे जिससे परलोक में सुख से रह सके।
अतिरूपेण वै सीता अतिगर्वेण रावणः।
अतिदानाद् बलिर्बद्धस्तस्मादतिं विवर्जयेत्।। = अत्यधिक सौंदर्य के कारण सीता का अपहरण हुआ, अतिगर्व के कारण रावण मारा गया, अतिदान देने के कारण बलि बन्धन में पड़ा अतः अति का त्याग करना चाहिए।
अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विद्यते तव भारती।
व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयतामायाति सञ्चयात्।। = हे विद्यादेवी तेरा कोश अद्भुत है, व्यय करने से बढ़ता है और संचय करने से घटता है।
कुभोज्येन दिनं नष्टं कुकलत्रेण शर्वरी।
कुपुत्रेण कुलं नष्टं तन्नष्टं यन्न दीयते।। = कुभोजन से दिन कुपत्नी से रात और कुपुत्र से कुल नष्ट हो जाता है तथा जो नहीं दिया वह धन भी नष्ट हो जाता है।
अभ्यासाद् धार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते।
गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते।। = निरन्तर अभ्यास से विद्या स्थिर रहती है, शील = उत्तम गुण-कर्म-स्वभाव से कुल का विस्तार होता है। आर्य की पहचान श्रेष्ठ गुण से होती है और क्रोध आंख से जाना जाता है।
धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम्।
धर्मेण लभते सर्वं धर्मसारमिदं जगत्।। = धर्म से धन प्राप्त होता है और धर्म से सुख भी। धर्म से ही सब कुछ मिलता है, इस संसार में धर्म ही सार है।
ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते।। = मैं दोनों भुजाएं ऊपर उठा कर पुकार-पुकार कर कह रहा हूं किन्तु मेरी बात कोई नहीं सुनता। (धर्म से मोक्ष तो मिलता ही है) अर्थ और काम भी धर्म से ही सिद्ध होते हैं, फिर भी लोग उसका सेवन नहीं करते।
भयादस्याग्निस्तपति भयाच्च तपति सूर्यः।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः।। = परमेश्वर के भय से (नियम से) अग्नि तप रहा है। उसी के भय से सूर्य भी तप रहा है। विद्युत् और वायु भी उसके भय से चलते हैं। मृत्यु भी उसी के शासन से भागता फिरता है।
अत्यम्बुपानान्न विपच्यतेऽन्नं निरम्बुपानाच्च स एव दोषः।
तस्मान्नरो वह्निविवर्धनाय मुहुर्मुर्वारि पिबेदभूरि।। = अधिक पानी पीने से अन्न का पाचन ठीक नहीं होता और बिलकुल पानी न पीने से भी वही दोष होता है अतः जठराग्नि को प्रदीप्त करने के लिए मनुष्य को भोजन के मध्य बार-बार थोड़ा-थोड़ा पानी पीना चाहिए।
सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम्।
अहार्यत्वादनर्घ्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा।। = चुराया न जाने से, अत्यन्त मूल्यवान होने से, (व्यय करने पर भी) कभी भी नष्ट न होने से विद्या को सब धनों में उत्तम धन माना गया है।
आत्मद्वेषाद् भवेन्मृत्युः परद्वेषाद् धनक्षयः।
राजद्वेषाद् भवेन्नाशो ब्रह्मद्वेषात् कुलक्षयः।। = स्वयं से द्वेष करने से मृत्यु होती है, अन्यों से द्वेष करने से धन का नाश होता है, राजा से द्वेष करने से अपना नाश होता है और ब्राह्मण से द्वेष करने से कुल का नाश होता है।
सन्तोषादनुत्तमः सुखलाभः = सन्तोष के धारण करने से सर्वोत्तम सुख मिलता है।
धर्मदानकृतं सौख्यमधर्माद् दुःखसम्भवम्।
तस्माद् धर्मं सुखार्थाय कुर्यात् पापं विवर्जयेत्।। = धर्म और दान से सुख तथा अधर्म से दुःख होता है, अतः सुख के लिए धर्माचरण करे पाप को सर्वथा त्याग दे।
प्रियवाक्यप्रदानेन तुष्यन्ति सर्व जन्तवः।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।। = प्रिय वचन बोलने से समस्त प्राणी खुश होते हैं, अतः सदा मीठा ही बोलना चाहिए, मधुर वाणी बोलने में कैसी कंजूसी ?
अनभ्यासेन वेदानाम् आचारस्य च वर्जनात्।
आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राञ्जिघांसति।। = वेद का अभ्यास न करने से, आचार का त्याग करने से, आलस्य से और अन्नदोष से ब्राह्मण को मृत्यु मारना चाहती है।
न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मं जह्याज्जीवितस्यापि हेतोः = कामना (इच्छा), भय और लोभ के कारण तथा प्राणों की रक्षा के लिए भी कभी धर्म का त्याग न करें।
अधर्मोपार्जितैरर्थैः करोत्यौर्ध्वदेहिकम्।
न स तस्य फलं प्रेत्य भुङ्क्तेऽर्थस्य दुरागमात्।। = जो मनुष्य जन्मान्तर में प्राप्त होनेवाले सुख के उपाय (दान, यज्ञादि कर्म) अधर्मसे कमाए हुए धन से सम्पन्न करता है वह उस धन के अनुचित मार्ग से आने के कारण मरने के बाद उन दानादि कर्मों का फल नहीं पाता है।
अप्रशस्तानि कर्याणि यो मोहादनुतिष्ठति।
स तेषां विपरिभ्रंशाद् भ्रंश्यते जीवितादपि।। = जो पुरुष निन्दित कर्म को मोह के कारण करता है, वह उन कर्मों के दूषित होने से जीवन से भी नष्ट हो जाता है।
यस्योदकं मधुपर्कं च गां च न मन्त्रवित् प्रति गृह्णाति गेहे।
लोभाद् भयादथ कार्पण्यतो वा तस्यानर्थं जीवितमाहुरार्याः।। = जिस (कृपण) पुरुष के घर में (गृहस्वामी के) लोभ के कारण, भय के कारण अथवा न दिए जाने से जल मधुपर्क गौ आदि को विद्वान् पुरुष ग्रहण नहीं करता, उसका जीना व्यर्थ है ऐसा श्रेष्ठ जन कहते हैं।
ब्राह्मणानां परिभवात् परिवादाच्च भारत।
कुलान्यकुलतां यान्ति न्यासापहरणेन च।। = हे भरतकुलोत्पन्न धृतराष्ट्र ! ब्राह्मणों की हिंसा करने से, निन्दा करने से और अमानत के अपहरण (खा जाने से) उत्तम कुल भी नीच कुल को प्राप्त हो जाते हैं।
संतापाद् भ्रश्यते रूपं सन्तापाद् भ्रश्यते बलम्।
सन्तापाद् भ्रश्यते ज्ञानं सन्तापाद् व्याधिमृच्छति।। = शोक के कारण रूप, बल तथा स्मृति नष्ट हो जाते हैं और सन्ताप के कारण पुरुष रोग को प्राप्त हो जाता है।
अन्योन्यसमुपष्टम्भादन्योन्यापाश्रयेण च।
ज्ञातयः सम्प्रवर्धन्ते सरसीवोत्पलान्युत।। = एक दूसरे के सहारे और एक दूसरे के सहयोग से सम्बन्धी जन उसी प्रकार बढ़ते हैं, जैसे तालाब में कमल।
श्रीर्मङ्गल्यात् प्रभवति प्रागल्भ्यात् सम्प्रवर्धते।
दाक्ष्यात्तु कुरुते मूलं संयमात् प्रतितिष्ठति।। = लक्ष्मी मंगल कर्मों से प्राप्त होती है, चतुराई से बढ़ती है, कालोचित व्यवहार से अपनी जड़ जमाती है और संयम से स्थिर होती है।
दृश्यन्ते हि महात्मानो वध्यमानाः स्वकर्मभिः।
इन्द्रियाणामनीशत्वात् राजानो राजविभ्रमैः।। = अनेक बड़े-बड़े राजा अजितेन्द्रिय होने से अपने कर्मों एवं ऐश्वर्यमद से ही नष्ट होते हुए देखे जाते हैं।
अर्थानामीश्वरो यः स्यादिन्द्रियाणामनीश्वरः।
इन्द्रियाणामनैश्वर्यादैश्वर्याद् भ्रश्यते हि सः।। = जो मनुष्य धन-सम्पत्तियों का तो स्वामी है, परन्तु इन्द्रियों का स्वामी नहीं है, वह इन्द्रयों का स्वामी न होने से निश्चय ही ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है (उसका ऐश्वर्य नष्ट हो जाता है)
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।। = विषयों का ध्यान लगातार करते रहने से पुरुष का उन विषयों में संग (आसक्ति) पैदा होती है। संग के कारण उन विषयों को भोगने की इच्छा पैदा होती है। और कामनापूर्ति में बाधा आने पर क्रोध उत्पन्न होता है।
क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। = क्रोध के कारण मूढ़ता (मोह) उत्पन्न होता है, मोह के कारण स्मृति नष्ट हो जाती है, स्मृति नष्ट होने के के कारण उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता और विवेक के नष्ट होने पर व्यक्ति स्वयं ही नष्ट हो जाता है।

आचार्या शीतल जी आर्ष गुरुकुल अलियाबाद
https://www.facebook.com/sanskritamm


इति

टिप्पणियाँ