समुद्रमपि संतरेत् प्रचलदूर्मिमाला कुलम् ।
भुजंगमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारयेत् ।
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजन चित्तमाराधयेत् ।।4।।
व्याख्या - कदाचित् मकरमुखात् कश्चित् बलपूर्वकं मणिनिष्कासनं कुर्यात् , कदाचित् महोर्मिमालायुक्तं समुद्रम् अपि कश्चित् सरलतया प्लवेत्, कदाचित् रुष्टं महाविषधरमपि स्वशिरसि पुष्पवत् धारयेत् किन्तु दुराग्रही-मूर्खस्य चित्तप्रसाद: कदाचिदपि न सम्भाव्यते ।
हिन्दी - सम्भव है मगरमच्छ के दातों के मध्य फंसे हुए मणि को बलपूर्वक निकाला जा सके, महातरंगों से युक्त समुद्र को भी तैर कर पार किया जा सके तथा क्रोधित हुए महाविषधारी नाग को भी सिर पर पुष्प की भाँति धारण किया जा सके किन्तु किसी हठी, दुराग्रही-मूर्ख व्यक्ति को समझा सकना सर्वथा असम्भव है ।
छन्द: - पृथ्वी छन्द
छन्दलक्षणम् - जसौ जसयलावसुग्रहयतिश्चपृथ्वीगुरु: ।
हिन्दी छन्दानुवाद -
सम्भव है कभी कोई मकर के मुख मध्य फंसी मणि को भी हाथ डाल के निकाल ले ।
बादलों को छूती हुई लहरों के बीच जाके उदधि में डूबे नहीं आप को सम्हाल ले ।
क्रोध से हों आंखे लाल-लाल जिस व्याल की उसे भी फूल की तरह उठाए निज भाल ले ।
सम्भव है सब पर मूर्ख दुराग्रही को मना सके न कोई चाहे फोड ही कपाल ले ।।
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