पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दित: ।
कदाचिदपि पर्यटन् शशविषाणमासादयेत् ।
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ।।5।।
व्याख्या -
यदि प्रयत्नेन पीड्यते चेत् कदाचित् बालुकया अपि तैलम् निर्गच्छेत् । कदाचित् कश्चित् मृगतृष्णया अपि जलं पातुं समर्थ: भवेत् । कदाचित् अटनं कुर्वन् शशकस्य अपि विषाणं दृष्येत् किन्तु दुराग्रही-मूर्खजनस्य चित्तप्रसादनं (चित्तस्य प्रसन्नता) कदापि, कथमपि सम्भवं नास्ति ।
हिन्दी -
यदि प्रयत्नपूर्वक पेराई की जाए तो सम्भव है बालू से भी तेल निकाला जा सके । यह भी सम्भव है कि मृगतृष्णा (तदाभाव में तदाभास अर्थात् जो नहीं है फिर भी दिखाई दे रहा हो जैसे गर्म सडक पर दूर से देखने पर जल का दिखाई देना) से भी कोई प्यासा व्यक्ति जल प्राप्त कर सके । कभी घूमते समय सम्भव है खरगोश के सिर पर भी सींग दिखाई दे जाए । किन्तु किसी भी भांति दुराग्रही मूर्ख व्यक्ति को समझा सकना (प्रसन्न कर सकना) सर्वथा असम्भव है ।
छन्द: - पृथ्वी छन्द
छन्दलक्षणम् - जसौ जसयलावसुग्रहयतिश्चपृथ्वीगुरु: ।
हिन्दी छन्दानुवाद -
निकल सकता बालू से तेल यत्न से यदि पेरा जाए ।
प्यास का मारा मृगतृष्णा से सम्भव है जल पा जाए ।
घूमते हुए दिखे शायद सींग शश के सिर पर आबाद ।
मगर सब भाँति असम्भव है हठी मूरख का चित्तप्रसाद ।।
इति
न हि लभेत् सिकतासु परन्तु लभेत सिकतासु यतः लभ् धातुरात्मनेपदम्|
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