कृमिकुलचितं लालाक्लिन्‍नं ... नीतिशतकम् ।।


कृमिकुलचितं लालाक्लिन्‍नं विगन्धिजुगुप्सितम् 
निरुपमरसप्रीत्‍या खादन्‍नरास्थिनिरामिषम् ।
सुरपतिमपि श्‍वा पार्श्‍वस्‍थं विलोक्‍य न शंकते 
न हि गणयति क्षुद्रो जन्‍तु: परिग्रहफल्‍गुताम्  ।। 9

व्‍याख्‍या -
कीटै: पूरितं, मुखोदकमिश्रितं, दुर्गन्‍धपूर्णं, घृणास्‍पदं, मांसरिक्‍तमपि नर-अस्थिं प्राप्‍य श्‍वान: प्रेम्‍णा खादन् पार्श्‍वस्‍थम् इन्‍द्रमपि दृष्‍ट्वा न शंकयति, विभेति च ।
इत्‍युक्‍ते क्षुद्रजीवा: प्राप्‍तवस्‍तो: क्षुद्रतां, नि:सारतां च नैव गणयन्ति कदाचिदपि ।

 हिन्‍दी -
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कीडों से  बिंधे हुए, लाल से सने हुए, दुर्गन्‍धपूर्ण, घृणायुक्‍त, मांसशून्‍य नर-अस्थि को बडे प्रेम से खाता हुआ कुत्‍ता अपने पास खडे इन्‍द्र को भी देखकर आशंकित अथवा भयभीत नहीं होता । क्‍यूँकि क्षुद्र प्राणी अपनी वस्‍तुओं की नि:सारता, नीरसता और तुच्‍छता पर तनिक भी ध्‍यान नहीं देते हैं ।

छन्‍द - हरिणी छन्‍द: ।
छन्‍दलक्षणम् - नसयरसलाग: षड्वेदैर्हयैर्हरिणीयता।

हिन्‍दी छन्‍दानुवाद - 
कीडों से सने हुए दुर्गन्‍धयुक्‍त, रक्‍त-मांस-हीन, घृणायुक्‍त अस्थि को चबाये जाता है
जिसमें न रस, न ही स्‍वाद, न क्षुधा की शान्ति, लार से सना हुआ उसे ही श्‍वान खाता है ।
पास जो खडा हो इन्‍द्र तो भी न बिलोके डरे, अपना समग्र ध्‍यान उसी में लगाता है
सत्‍य ही है तुच्‍छ नित्‍य ग्रहण किये की छुद्रता का ध्‍यान त्‍याग मन भोग में रमाता है ।।

इति

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