कीलोत्पाटिवानर कथा
मगध देश में धर्मारण्य के पास की किसी भूमि पर शुभदत्त नाम का एक कायस्थ एक बौद्ध विहार बनवा रहा था । वहाँ पर आरे से आधी दूर तक चीरे हुए किसी बाँस के दोनों टुकड़ों के बीच में बढई ने एक कील गाड़ दी थी ।
एक समय वहाँ बहुत से बन्दर खेलते हुए आ गये । उनमें से एक बन्दर मानो काल से प्रेरित होकर उस कील को हाथ से पकड़कर बैठ गया । उसके लटकते हुए अण्डकोश बाँस के फटे हुए दोनों हिस्सों के बीच घुस गये ।
इसके बाद उस बन्दर ने स्वाभाविक चंचलता के कारण बड़े परिश्रम से उस कील को खींचा । कील के निकल जाने पर उसके दोनों अण्डकोश काठ के दाेनों खण्डों के बीच में दब कर पिस गये जिससे वह बानर वहीं मर गया ।
इसीलिये कहा है - जो प्राणी वृथा व्यापारों को करता है‚ वह कील उखाड़ने वाले वानक के समान ही मर कर भूमि पर पड़ जाता है ।
अव्यापारेषु व्यापारं यो नरः कर्तुमिच्छति ।
स भूमौ निहतः शेते‚ कीलोत्पाटीव वानरः ।।
हितोपदेश
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