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महाराज शूद्रक व उनके सेवक वीरवर की कथा ।

शूद्रक-वीरवरकथा ।


किसी समय शूद्रक नामक एक महान् राजा शासन करता था । वह बड़ा ही न्यायप्रिय व प्रजापालक था ।

एक समय वीरवर नामक एक राजपुत्र किसी देश से आकर राजद्वार पर उपस्थित होकर द्वारपाल से बोला - मैं जीविका की इच्छा से आया हुआ राजपुत्र हूँ । मुझे राजा के दर्शन करा दो । द्वारपाल ने राजा से राजपुत्र के आने व दर्शन की इच्छा की सूचना दी‚ तथा राजा की अनुमति लेकर वीरवर को राजा के दर्शनों के लिये उनके सम्मुख ले गया ।

राजा ने आगमन का हेतु पूछा । वीरवर ने कहा - राजन् मैं दूरदेश का एक राजपुत्र हूँ । अपने परिवार के साथ इस देश में आया हूँ और अपने भरण-पोषण के लिये आजीविका की तलाश में हूँ । यदि सम्भव हो तो मुझे अपनी सेवा में रख लीजिये ।

राजा ने पूछा - मासिक वेतन क्या लोगे ॽ

वीरवर ने कहा - प्रतिदिन पाँच सौ स्वर्ण मुहरें ।

राजा ने कहा - मेरे पास ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिसके लिये इतना वेतन दिया जा सके ।

राजा की बात सुनकर वीरवर अपने रास्ते चल दिया । वीरवर को जाता देखकर मन्त्रियों ने राजा को सलाह दी - महाराज ǃ चार दिन इसे वेतन पर रखकर इसका वास्तविक स्वरूप जानना चाहिये‚ और ये भी कि यह इतने वेतन को कहाँ खर्च करेगा ।

राजा ने मन्त्रियों की बात मानकर वीरवर को वापस बुलवाया और उसे अपनी सेवा में रख लिया । राजा ने वीरवर के खर्चे को देखने के लिये उसके पीछे गुप्तचर भी लगा दिये ।

गुप्तचरों ने देखा कि वह अपने वेतन का आधा भाग तो देवता ओर सन्तों की सेवा में लगा दिया‚ बचे हुए धन का आधा गरीबों में बाँट दिया तथा शेष धन को अपने व अपने परिवार की आवश्यकताओं व विलास में लगाया । यही उसका प्रतिदिन का कृत्य था । यह सुनकर राजा बहुत सन्तुष्ट हुआ ।

वीरवर भी राजा की सेवा में नियमित बिना थके उपस्थित रहने लगा । वह दिन-रात हाँथ में खड्ग लिये राजद्वार पर बैठा रहता और जबतक राजा उसे स्वयं जाने के लिये न कहते वह अपने घर भी नहीं जाता था ।

एक समय कृष्णपक्ष की चौदस की अन्धेरी रात में राजा ने कहीं जोर-जोर से किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनी । उस आवाज का भेद जानने के लिये राजा ने वीरवर को आवाज के पीछे भेजा । वीरवर हाथ में खड्ग और दूसरे हाथ में मशाल ले आवाज की दिशा में चल दिया ।

राजा ने मन ही मन सोचा‚ इस तरह इस महा अन्धकार में वीरवर को अकेला भेजना ठीक नहीं है‚ अतः राजा भी हाथ में तलवार ले चुपचाप वीरवर के पीछे चल दिया ।

नगर के बाहर पहुँचकर वीरवर ने एक युवती सुन्दरी‚ जो आभूषणों से परिपूर्ण थी को रोता हुआ देखा । उसे रोते देख वीरवर ने पूछा - आप कौन हैंॽ और आपके रोने का क्या कारण है ॽ

स्त्री बोली - मैं राजा शूद्रक की राजलक्ष्मी हूँ । बहुत समय से इसकी भुजाओं में मैं बड़े सुख से रही‚ पर अब मैं दूसरी जगह जाऊँगी‚ क्योंकि भगवती दुर्गा के अपराध के कारण यह राजा आज से तीसरे दिन मर जाएगा ।
वीरवर यह सुनकर स्तब्ध रह गया । उसने दीनता भरे स्वर में पूछा - हे देवि ǃ हर अपाय का कुछ उपाय भी अवश्य ही होता है । कृपया वह उपाय बतायें जिससे मेरे राजा की मृत्यु टल जाए और आप भी उन्हें छोड़कर न जाएँ ।

स्त्री बोली - हे वीरपुरुष ǃ उपाय तो है‚ पर वह अत्यन्त दुरूह और कष्टकारी है । क्या तुम उस उपाय को कर सकोगे ॽ

वीरवर ने दृढता से कहा - हे देवि ǃ महाराज के प्राण बचाने के लिये यदि मुझे अपने भी प्राण देने पड़े तो एक क्षण के लिये भी विचार नहीं करूँगा । कृपया आप उपाय बताये ।

स्त्री ने कहा - यदि तुम भगवती सर्वमंगला (काली) के चरणों में अपने युवा पुत्र की बलि दे दो तो राजा का राज्य और प्राण दोनों ही निष्कण्टक हो जाएँगे । फिर मैं भी उसे छोड़ कर नहीं जाऊँगी । ऐसा कहकर भगवती राजलक्ष्मी वहीं लुप्त हो गईं ।

वीरवर उपाय जानकर विना एक पल भी गवाएँ अपने घर की ओर चला । घर जाकर उसने अपनी पत्नी और पुत्र के सामने सारी बात कह सुनाई । उसकी बात सुनकर पुत्र प्रसन्न होते हुए बोला - मेरे अहोभाग्य यदि मैं ऐसे न्यायप्रिय राजा के प्राण बचाने के लिये अपने प्राण दे सकूँ ।

वीरवर की पत्नी यद्‍यपि पुत्र के वध की बात सुनकर दुःखी थी‚ फिर भी उसने अपने पुत्र का ही समर्थन किया ।

इसके अनन्तर वीरवर‚ उसका पुत्र व पत्नी तीनों ही भगवती सर्वमंगला के मन्दिर पहुँचे । वीरवर ने भगवती की आराधना की और अपने पुत्र का गला काट कर भगवती को समर्पित कर दिया ।

पुत्र के मर जाने पर वीरवर ने भी जीवन की आशा छोड़ दी और स्वयं का गला भी भगवती के चरणों में काटकर चढा दिया ।

पुत्र व पति के मर जाने पर वीरवर की पत्नी ने भी उन्हीं दोनों का अनुगमन करते हुए अपने भी प्राण छोड़ दिये ।

दूर पेड़ की आड़ में छिपा राजा यह सब देखता रहा । तीनों के ही काल के वशीभूत हो जाने पर राजा को बहुत ही ग्लानि हुई । उसने सोचा - मेरे एक के जीवन के बदले में ऐसे सज्जन तीन व्यक्तियों का जीवन नष्ट हो गया‚ इसलिये मुझे भी जीने का कोई अधिकार नहीं ।

राजा भी भागकर भगवती के दर पर पहुँचा जहाँ वीरवर व उसके परिवार का शव पड़ा हुआ था । राजा ने वीरवर की स्वामिभक्ति को प्रणाम किया और खड्ग उठाकर ज्यूँ ही अपना गला काटना चाहा त्यों ही भगवती लक्ष्मी प्रकट हो गईं । उन्होंने राजा को समझाते हुए कहा - राजन् ǃ आपके सेवक व उसके परिवार ने अपने प्राण देकर आपके संकट को टाल दिया है । अब न तो आपके प्राणों पर कोई संकट है और न ही आपके राज्य-सम्पत्ति आदि पर । इसीलिये घर जाइये और चिरकाल तक सुख से शासन कीजिये ।

राजा ने कहा - हे माता ǃ मैं अपने इस परम निष्ठावान् सेवक के बिना नहीं जी सकता । मेरा जीवन बचाने के लिये इसने बिना विचार किये ही परिवार सहित प्राणोत्सर्ग कर दिया । ऐसे धर्मात्मा और निष्ठावान् व्यक्ति बड़ी कठिनाई से मिलते हैं ।

माता लक्ष्मी बोली - पुत्र ǃ सेवकों का जीवन तो स्वामी के लिये ही होता है । यदि वीरवर ने तुम्हारे लिये अपने प्राण दिये तो इसमें महानता जैसी कोई बात नहीं‚ अपितु ये तो उसका कर्तव्य था ।

राजा बोला - हे माता ǃ जो अपने सेवकों के प्राणों की रक्षा न कर सके ऐसे स्वामी को भी जीवन धारण करने का कोई अधिकार नहीं । इसीलिये आप मेरी भी बलि स्वीकार करें ।

राजा की प्रजावत्सलता को देखकर भगवती लक्ष्मी प्रसन्न हो गईं । उन्होंने राजा से मनचाहा वरदान माँगने को कहा । तब राजा ने वरदान के रूप में वीरवर और उसके परिवार का जीवन माँग लिया ।

भगवती ने प्रसन्न होते हुए कहा - हे राजन् ǃ आप का कल्याण हो । आप जैसा राजा और वीरवर जैसा स्वामिभक्त संसार में विरले ही मिलते हैं । तुम्हारी सम्पत्ति और कीर्ति अक्षुण्ण रहेगी । वीरवर भी परिवार सहित जी उठेगा । ऐसा कहकर देवी अन्तर्धान हो गई ।

राजा तुरन्त ही अपने महल को चला गया । वीरवर भी परिवार सहित जीवित हो गया और इसे भगवती की कृपा मानकर अपने घर चला गया । अगले दिन जब वीरवर अपने काम पर लौटा तो राजा ने उससे रात की बात पूँछी - कहो वीरवर ǃ वह महिला कौन थी ॽ क्यूँ रो रही थी ॽ तुमने उसे कैसे चुप कराया ॽ

वीरवर ने कहा - महाराज ǃ मेरे जाते ही वह महिला अदृश्य हो गई थी । इससे अधिक कोई बात ज्ञात नहीं हो सकी ।

राजा ने सोचा - अरे ǃ यह कैसा प्रशंसनीय पुरुष है जो इतना महान् कार्य करके भी आत्मप्रशंसा से मुक्त है । इसमें महापुरुषों के सारे लक्षण विद्‍यमान् हैं ।

उसी दिन राजा ने सभी मन्‍त्रियों की सभा बुलाई और पिछली रात की सारी कथा कह सुनाई । सभी मन्त्रियों की सहमति से राजा ने अगले ही दिन वीरवर को कर्नाटक राज्य का राजा घोषित कर दिया ।

इस तरह अपनी वीरता व कर्तव्यनिष्ठा से वीरवर राजा का प्रिय मित्र हो गया ।

हितोपदेश

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