रामो द्विर्नाभिभाषते – अयोध्या के महाराज दशरथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को राज्यभार सौंपने के लिये उनके राज्याभिषेक का विचार किया । कुलगुरु वशिष्ठ जी ने इस बात का अनुमोदन किया । कुलगुरु ने श्रीराम को बुलाकर उन्हें सभी प्रकार के व्रत-संयम का निर्देश किया यतोहि अगले ही दिन पुष्य नक्षत्र में कर्क लग्न में श्रीराम का युवराज पद पर अभिषेक होना था । अभिषेक की सारी सामग्रियाँ उपस्थित हो चुकी थीं । पूरे राज्य में खुशी की लहर दौड़ गई थी । राम सभी के प्राणप्रिय थे । जिसने भी सुना वह अगले दिन की प्रतीक्षा में लग गया । महारानी कैकई की दासी कुबड़ी मंथरा ने रानी को समाचार सुनाया । रानी बड़ी हर्षित हुईं । उसे पारितोषिक दिया । कुबड़ी अन्दर से जली हुई थी । उसे राम के यौवराज्याभिषेक की सूचना से अपार कष्ट था । उसने महारानी की दी हुई माला भूमि पर फेंक दी और उसे धिक्कारना और बरगलाना शुरू किया । कुछ देर तक महारानी राम से प्रेम प्रदर्शित करती रहीं किन्तु शीघ्र ही मन के अन्दर की अव्यक्त कामना उन पर हावी हो गई । उन्हें मन्थरा की बात जँच गई । मन्थरा ने महाराज के द्वारा देवासुर संग्राम में दिये दो वरों की याद
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